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सुकुम्भोज, अकम्पन, सुपतंग, प्रभंजन और प्रभास-सभी से सात्यकी का मेलजोल करा दिया था। और भी कई लिच्छवि युवाओं ने उसे बड़े प्यार और सम्मान से अपनाया था। लेकिन सात्यकी की मनोमुद्रा कुछ और ही तरह की थी। यों सब से हँस-बोल लेता था। लेकिन प्राय: चुप रहता था। उसके मन की तह में कोई झाँक नहीं पाता था। अन्तःपुर के विशाल गोष्ठीकक्ष में सारे परिवार के स्त्री-पुरुषों की महफ़िल जमती । हँसी-चहल के फव्वारे उड़ते। कि ठीक तभी सात्यकी कब चुपचाप वहाँ से गायब हो जाता, किसी को पता न चलता। लेकिन रोहिणी की आँख से यह पलातक बच नहीं पाता। ___"रोहिणी के मन में एक काँटा और भी चुभ रहा था। वर्द्धमान कुमार नहीं आये ? रोहिणी मामी के उस गोपन रिक्त को दूसरा कौन समझ सकता था। किसी से यह बात पूछ भी कैसे सकती थी? तो फिर किस लिये पुकारा था मुझे-आरब्य सागर की लहरों पर से? यों रोहिणी ने परोक्षतः जान लिया था : कि वर्द्धमान तो प्रसंग पर कहीं जाते नहीं । 'अप्रासंगिक चर्या करते हैं। प्रवासी अतिथि का क्या भरोसा-कब कहाँ होगा? सो रोहिणी ने अपने मन को समझा लिया था। अलक्ष्य भविष्यत् में आशा की टकटकी लगा दी थी।
.. लेकिन इस सात्यकी को क्या हो गया है ? "होना क्या है। यही तो उसका स्वभाव रहा सदा से। रोहिणी के जी में अपने चुप्पे भाई का दर्द बना रहता। पर अब वह उसे टोकती नहीं थी। चुपचाप उसके हाल को देखती रहती। राजपुत्रों की आपानक गोष्ठियों में वह कहीं न होता। पूरे परिवार की वन-क्रीड़ा और वन-भोजनों में भी, वह किनारे कहीं छिटका दीखता । फिर अन्तर्धान ।
सात्यकी की इस विरागी चर्या को कोई एक और चुपचाप देखती रहती थी।"चेलना से छोटी सुज्येष्ठा इस चुप्पे लड़के के रहसीले मन में झाँकने को उत्सुक थी। मन्दार फूलों-सी दूर-गन्धा वह लड़की, खुद भी तो कम रहसीली नहीं थी। वैसी ही तो चुप्पी, सुगम्भीर प्रकृति । सदा उजले श्वेत वस्त्रों में शोभित कोई कैरवी। सात्यकी ने एक बार उसे अपनी ओर देखते, देख लिया था। कैसी सरल निवेदन भरी थी वह चितौनी। एक शान्त झील, जिसमें सब सहज प्रतिबिम्बित है। ऐसा कई बार हुआ था। सात्यकी को भय-सा लगा था ।...नहीं, बन्धन और व्यथा ले कर वह नहीं सोयेगा। और वह छिटक जाता।
...लेकिन सुज्येष्ठा भी उसके बाद कब कहाँ चली जाती, किसी को पता ही न चलता। हर सबेरे वह स्नान-गन्ध से पवित्र हो कर ‘चन्द्रप्रभ चैत्य
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