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'यह मेरा भैया सात्यकी, मौनी मनि है। लेकिन यही मेरा अकेला संगी है, हमारे सारे गान्धार में। काश यह थोड़ा उन्मुख होता, तो भला मैं आपको जयमाला क्यों पहनाती, सेनापति !'
'ओ हो, तो भाई से ही काम चल जाता, पति अनावश्यक हो जाता !' कह कर सिंहभद्र ठहाका मार कर हँस पड़े। उन्होंने भोलेभाले सात्यकी को पास खींच कर सीने से लगा लिया। तभी रोहिणी बोली :
'यह मेरा राजा भैया ही मुझे पहुँचाने वैशाली आयेगा।'
'सच ही तो, पराये पुरुष का भरोसा भी क्या, कब राह में दगा दे जाये ! यह तो आपका रक्तजात भाई, लोही की सगाई। मैं इसकी बराबरी कैसे कर सकता हूँ !'
कहते हुए सिंहदेव फिर ज़ोर से हँसे, और सात्यकी को अपनी बग़ल में ले कर उसके गलबाँही डाल दी। रोहिणी का नारीत्व अपनी अगाधता में निमज्जित हो गया। वह कृतार्थता के तीर्थ-सलिल से आचूड़ भींज आई।
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'मैं वैशाली नहीं चलंगा, दीदी !' ‘ऐसा रूठ गया मुझ से ? मेरा विवाह करना अपराध हो गया ?'
'इतना ही समझती हो मुझे? छोड़ो वह। सोचो तो, तुम्हारे पल्ले की कोर बँधा कब तक, कहाँ-कहाँ घूमता फिरूँगा? यह क्या मेरे पुरुष के लायक होगा ?' . रोहिणी की आँखें लाड़ भरे गर्व से भीनी हो आईं। भीतर के कण्ठ से बोली :
'यह तुझे क्या हो गया है, सत्तन् ? तुझे पुरुष होने को कह कर मैं हत्यारी हो गयी। पुरुष होने का अर्थ यह तो नहीं, कि मुझ से पराया हो जायेगा! और न यही, कि सब से भागा फिरेगा। "तू नहीं चलेगा पहुँचाने, तो मैं भी नहीं जाऊँगी वैशाली...!' कहते-कहते रोहिणी का स्वर डूब गया।
...तब कैसे मने करता सात्यकी। वह दीदी के साथ वैशाली आया । वहाँ सिंहभद्र और रोहिणी के विवाह का उत्सव बड़ी धूम-धाम से हुआ। कई दिनों तक चलता रहा। दूर-दूर से आ कर सारा परिवार एकत्र हुआ था। सिंहसेनापति की सारी बहनें आयी थीं। कुण्डपुर से त्रिशला, चम्पा से पद्मावती, कौशाम्बी से मृगावती। उज्जयनी से शिवादेवी, वीतिभय से प्रभावती। और राजगृही से चेलना। सुज्येष्ठा और चन्दना तो कुंवारी ही थीं। रोहिणी ने सभी से सात्यकी का परिचय कराया था। सब को वह बहुत प्रिय लगा था। सिंहभद्र ने अपने भाई दत्तभद्र, धन, सुदत्त, उपेन्द्र,
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