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'पागल कहीं के ...' कह कर रोहिणी खिलखिला पड़ी। और वह अपने मामा के घर रथमेघनगर की ओर धावमान दीखी । सात्यकी के मुंह से सिसकी फूट पड़ी। और फिर वह खोया-भूला-सा अपने प्रवास की पान्थशाला की ओर घोड़ा दौड़ाने लगा।
___ "रोहिणी प्राणपण से सात्यकी को काव्य, कला, शास्त्र, शस्त्र-सारी विद्याओं के गुह्य रहस्य सिखाने लगी। सीखा उसने सब, लेकिन उसका मन कहीं में नहीं था। मगर अब वह बेशक पुरुष हो गया। अपने स्वत्व में आ गया। औरों के प्रति तो पहले भी वह उदासीन ही था। लेकिन दीदी को ले कर जो गलदश्रु विकलता उसमें थी, वह तिरोहित हो चली थी। कहीं से वह निश्चल और नीराग कठोर हो आया-सा लगता था। ... बहुत कम बोलता, और शिक्षण समाप्त होते ही, अचानक चला जाता। रोहिणी को सन्तोष हुआ, कि सात्यकी अब अपने में आ गया है। वह निश्चिन्त हुई।
"उन्हीं दिनों वैशाली के महासेनापति सिंहभद्र किसी आवश्यक राजकीय कार्य से, राजदूत हो कर गान्धार आये हुए थे। वे अप्रतिम धनुर्धर महाली के शिष्य थे, और उनका तीर अचुक माना जाता था। उन्होंने वीरांगना रोहिणी की गगन-वेध धनुर्विद्या की ख्याति सुनी थी। गान्धार में उन्होंने रोहिणी का वह पराक्रम अपनी आँखों देखा। रोहिणी के व्यक्तित्व की गरिमा और तेजस्विता से वे प्रभावित हुए। तो साथ ही रोहिणी की मौन मृदुता ने भी उनका मन मोह लिया। एक दिन उनके बीच, खेल-खेल में, शिखर-वेध की होड़ लग गयी। सिंहभद्र का तीर, लक्षित शिखर से टकरा कर टूट गया, लेकिन रोहिणी ने शिखर को बींध दिया। इस हार से वैशाली के महासेनापति सिंह की आँखें रोहिणी के सामने झुक गईं। रोहिणी मुग्ध स्तम्भित देखती रह गयी। और अगले ही क्षण उसने एक जयमाला सिंहभद्र के गले में डाल दी और बोली :
'तुम हार कर भी जीत गये, मैं जीत कर भी हार गई !'
"उसी सन्ध्या को तक्षशिला में उन दोनों के गान्धर्व परिणय का भव्य आयोजन हुआ। सात्यकी भी उस उत्सव में शरीक हुआ था। कितना तटस्थ अकेला विचर रहा था वह, उस वाजित्रों से गूंजती जनाकीर्ण परिणय-सन्ध्या, में। वह ज़रा भी आहत या प्रभावित नहीं लगता था। शिलित निश्चल था मानो। रोहिणी दूर से ही उसे देख कर गर्व से मुस्करा रही थी। ...'मेरा सत्तू सच ही आदमी बन गया। पर इतना विरागी? क्या यह भी कोई निगढ़
राग ही नहीं है ?' "पर अपने नन्हे भैया के इस अप्रत्याशित परुष पौरुषो . देख वह आहत हो गयी। उसने सिंहभद्र से सात्यकी का परिचय कराया :
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