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'तुम अब भी पुरुष न हो सके ! भीरु कहीं के। मैं कब तक तुम्हें पकड़े बैठी रहूँगी। हरेक की अपनी एक नियति होती है, और वह उस ओर बरबस चला जाता है। इतना भी नहीं समझते ? अब निरे बच्चे तो नहीं तुम !'
'तो तुम मुझे छोड़ जाओगी, दीदी ?'
'छोड़ना और रखना, कुछ भी क्या मेरे हाथ है ? देख रही हूँ, अपने ही को नहीं रख पा रही हैं। आज एक बेरोक पुकार खींच ले गयी। और मैं समुद्र में तैरती हुई, उसके आभोग प्रदेश तक चली गयी। बेतरह हाथ-पैर मारती मानो इस सागर को अपने में बाँध लेना चाहती थी, कि तभी कि तभी।'
'तभी क्या, दीदी?' सहमा हुआ-सा सात्यकी बोला।
'मुझे समुद्र के सुदूर प्रत्यन्त देश से आती एक आवाज़ सुनाई पड़ी: रोहिणी मामी "रोहिणी मामी ! किसने पुकारा ? मैं किसी की मामी नहीं : किसी की कोई नहीं । कौन है वह मामा, कौन है वह भानजा? निरी जल्पना, बकवास। रोहिणी किसी की बन्धक नहीं हो सकती। लेकिन, सात्यकी, ऐसा लगता है, जैसे किसी अटल नियति ने पुकारा है अनबूझ है यह खेल !'
'तो तुम मुझे छोड़ जाओगी, दीदी?'
'मुझे कुछ नहीं मालूम, सात्यकी ! लेकिन लेकिन मेरे रहते तुम आदमी बन जाओ। अपने आप में आओ। फिर पीछे कौन देखने वाला है। किसे पड़ी है।' रोहिणी का गला भर आया। ___'दीदी ! ' फूट कर सात्यकी ने दीदी के जानू पर सर ढाल देना चाहा। रोहिणी ने कहा : 'नहीं, अब और नहीं, सत्तू। बेला टल रही है, चलो अब लौट चलें। फिर दरों में अँधेरा घिर आयेगा। .'
और विपल मात्र में ही दोनों अपने घोड़ों पर सवार हो कर, सुलेमान पर्वत की घाटियाँ पार करने लगे। दोनों चुप थे। एक अजस्र और शुद्ध गतिमत्ता में वे एकाकार थे। बस्तियों के दीये दूर पर चमकने लगे। एक चतुष्क पर पहुँच कर उनके घोड़े थम गये। बोली रोहिणी :
'मेरे भैया राजा, कितने प्यारे हो तुम। देखो, मैं कल गान्धार के लिये रवाना हो रही हूँ। हो सके तो तुम भी अपनी राह घर लौट चलो। दोतीन दिन में हम दोनों ही घर पहुँच जायेंगे। तब तुम्हें रोज़ ही मेरे पास आना होगा। मैं तुम्हें शास्त्र, शस्त्र और शिल्प सब की मौलिक शिक्षा दंगी। मैं तुम्हें अजेय धनुर्विद्या सिखाऊंगी। जानते तो हो, तुम्हारी दीदी को धनुविद्या में आज तक कोई हरा न सका। हाँ, तो आओगे न रोज मेरे पास?"
'हाँ दीदी, आऊँगा ज़रूर। लेकिन तुम कहीं चली मत जाना !'
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