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________________ २१७ करते देख कर। ऐसे क्षण उसका जी चाहता, कि कोई उसे देखे, कोई इस अछोर यात्रा के आनन्द में उसका सहचर और सहभागी हो। "एक दिन की बात । सात्यकी इसी तरह आरब्य समुद्र के तट पर एक नारियल वृक्ष की छाँव में अकेला निश्चल खड़ा था। वैसी ही सामुद्री मुद्रा। जैसे वह स्वयं ही यह समुद्र हो गया है। अपने अलग होने का कोई भान नहीं। तभी हठात् उसकी वह तल्लीन मुद्रा भंग हो गयी। उसने देखा, समुद्र की सुदूर वेला में से कोई नारी आकृति उठ कर लहरों को चीरती हुई उसकी ओर चली आ रही है। मानो जल ही उसका शरीर है, जल ही उसका चीर है। निरी जलजाया, जलवसना। कोई जल-परी? कोई अप्सरा ? अरे कौन है यह ? कौन है यह, जिसने मेरे आवाहन को सुना है ? जिसने मेरे इस स्वरूप को देखा है ! जो मेरे इस सौन्दर्य और आनन्द में सहभागिनी हुई है। ____ और वह उसके साथ तन्मय होता गया। उसे फिर अपनी इयत्ता बिसर गयी। "कि सहसा ही वह जल-कन्या उसे ठीक अपने सामने खड़ी दिखायी पड़ी। वह चौंका और बोल उठा : 'ओ, दीदी, रोहिणी दीदी !' ... 'यहाँ कोई दीदी-वीदी नहीं। मैं केवल एक स्त्री हूँ। मेरा कोई नाम नहीं, किसी एक सम्बन्ध से मैं बँधी नहीं।' 'तो दीदी, तुमने भी मुझे छोड़ दिया ?' ''कोई भी तुम्हें छोड़ देगी। इतने बड़े होकर भी तुम पुरुष न हो सके, आपे में न आ सके !' 'लेकिन, दीदी, सुनो तो तुम यहाँ कैसे ?' 'तुम यहाँ कैसे?' 'मैं मैं बस ऐसे ही, जैसे तुम यहाँ हो!' 'क्या चाहते हो मुझ से ?' 'कुछ नहीं, बस तुम रहो दीदी मेरे लिये...!' 'तो तुम रहो, मैं चली... !' 'दीदी, न, न, मत जाओ, मुझे अकेला छोड़ कर।' - सात्यकी का कण्ठ रुंध गया। उसने वेगपूर्वक जाती हुई रोहिणी का हाथ पकड़ लिया। रोहिणी बेबस हो गयी। वह धप् से वहीं बैट गयी। सात्यकी भी जहाँ था, वहीं बैठ गया। दोनों की आँखें मिली : दोनों की आँखें छलछला रही थीं। बड़ी देर मौन छाया रहा। बीच में एक दूरी अपार होती गयी। कि तभी भरभराते गले से बोली रोहिणी : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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