________________
२१६
वहाँ मे फिर बरसों पहले के दिनों में लौटने की जरूरत पड़ गयी है। जो अभी घटित होने जा रहा है, उसका पूर्व छोर पच्चीस-तीस बरस पहले कहीं हाथ आता है।
तब भगवान् नन्द्यावर्त प्रासाद में ही अपना कुमारकाल बिता रहे थे। गान्धार-नन्दिनी रोहिणी तब तक ब्याह कर वैशाली नहीं आयी थी। उसी ज़माने की बात है। गान्धार देश के महापुर का राजा था महीपाल । यह महागान्धार का ही एक छोटा राजकुल था। महीपाल का इकलौता बेटा था सात्यकी। वह स्वभाव से ही बहुत खामोश और एकाकी था। वह तक्षशिला के विश्वविद्यालय का स्नातक रहा था। तभी वहाँ के कुलपति और गान्धार के ज्येष्ठ राजकुल के वंशज आचार्य बहुलाश्व की तेजोमती बेटी रोहिणी का उस पर बहुत प्यार हो गया था। उस एकल विहारी गम्भीर लड़के से वह बरबस आकृष्ट थी। सात्यकी इस जगत् से ताल मिला कर नहीं चल पाया था। वह लीक छोड़ कर चला था। और एकान्त निर्जनों में भटकता हुआ अपनी पग-डण्डियाँ आप ही बना रहा था।
समकालीन आर्यावर्त की विख्यात वीरांगना और धनुर्धर थी गान्धारबाला रोहिणी। वह भी सीधी राह कहाँ चल पायी थी? सुदूर खैबर के दुर्गम दरों में घोड़ा फेंकती इस दुरन्त लड़की ने गुरुकुल की मर्यादा पहले ही दिन से तोड़ दी थी। ऐसी दुर्दान्त थी वह, कि अपने गगन-वेधी तीर से शून्य तक को चीर कर, उसके रहस्य खोल देने को मचलती रहती थी। सारे गान्धार में कनिष्ठ राजकुल का बेटा सात्यकी ही उसका एक मात्र मन-मीत था। सात्यकी ऐसा विरागी था, कि परिवार में या बाहर कोई निजी सम्बन्ध वह बना पाया ही नहीं। उसकी थाह पाना मुश्किल था। पर रोहिणी उससे ख़ब परच गयी थी। केवल वही उसे पहचानती थी। और सात्यकी भी चुपचाप अपनी इस बड़ी दीदी के वशीभूत-सा हो गया था। प्रायः वह चुप ही रहता था। लेकिन कभी उसके जी में आता, तो कितनी ममता से वह पुकारता रोहिणी को : 'दीदी !' ! - फिर भी वे बहुत कम ही मिलते थे। दोनों अपने-अपने एकान्तों में अपनी विचित्र राहों के अन्वेषण में खोये रहते। लेकिन दोनों ही को लगता था, कि वे सदा साथ हैं। कई बार घोड़े पर सवार हो कर सात्यकी सुदूर सुलेमान पर्वत के पार पश्चिमी समुद्र-तट पर एकाकी विचरता दिखायी पड़ता ।" देखता, कि लहर में से उभरती लहर अन्तहीन होती हुई पारावार हो जाती है। सीमाहीन विस्तार और अगाध में खो जाती है। और उसे लगता कि ऐसा ही तो है उसका मन। ऐसा ही तो है। उसका अपना भी रूप। कैसा तो आनन्द होता उसे, अपने आप को उस आरब्य समुद्र की तरंगों पर आरोहण
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org