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मुक्ति की अनजानी राहें
सभी कुछ तो घूम रहा है। पृथ्वी, आकाश, ग्रह-नक्षत्र, कण-कण, क्षण-क्षण सब घूम रहे हैं। सब अपने में घूम रहे हैं, और सब एक-दूसरे के चारों ओर घूम रहे हैं। देश, काल, भूमण्डल, खमण्डल, मनुष्य, इतिहास, पदार्थ, परमाणु-सभी निरन्तर चक्रायमान हैं। रेखिल कुछ भी नहीं, सभी चक्रिल है। कोई भी स्थिति या गति सपाट रेखा में नहीं है, चक्राकार है। सामने दीखती रेखा के दोनों छोर कहीं न कहीं जाकर मिल जाते हैं। इसी से सत्ता में कहीं आदि या अन्त नहीं है। सभी कुछ अनादि और अनन्त है। इसी से घूमना ही गति का अन्तिम स्वरूप है। अन्ततः सीधा कुछ नहीं, सब गोल है। सब छोर पर शून्याकार है। निराकार शून्य का जो बिम्ब दर्शन या गणित में उभरता है, वह गोल है। सब कुछ गोलाकार, अखण्ड मण्डलाकार।
सत्ता और पदार्थ का स्वभाव है परिणमन, अपने ही निज स्वरूप में निरन्तर घूमना। इसी से सृष्टि में सर्वत्र एक गोलाकार गत्तिमत्ता का आभास है। एक ही आदि अन्तहीन चक्र में घूमते हुए भी, हर वस्तु अपने को दुहराती नहीं, नित-नयी होती रहती है। हजारों लाखों वर्ष पूर्व जो घटित हुआ था, वह ठीक इस क्षण फिर नया हो कर हमारे सामने आ रहा है । अभी
और यहाँ जो भी घटन या विघटन है, वह अनादि काल-बिन्दु के परिप्रेक्ष्य से जुड़ा हुआ है।
ऐसे में भला हमारी कथा भी सीधी सपाट रेखा में कैसे चल सकती है। महावीर, श्रेणिक, चन्दना या चेलना अनादि में भी थे, और आज भी हैं। सो उनकी कथा भी घूम-फिर कर बारम्बार अनादि परिप्रेक्ष्य तक जाती है, और निरन्त भविष्यत् तक को मापती और व्यापती है। हर कथा लौट कर किसी अदृश्य में लय होती है, और उतने ही वेग से वह अदृष्ट भावी में दूर-दूर तक जाती दीखती है। ऐसे में सौ-पचास वर्ष के एक आयु-खण्ड में यदि कथा फिर पीछे तक जा कर, फिर आज में लौटती है, और आगे तक चली जाती है, तो क्या आश्चर्य है। - देखिये न, मैं भी कथा कहते-कहते आपको शून्य में घुमाने लगा हूँ। छोड़िये, हम फिर कथा के रूपायमान जगत् में लौटें। अभी हम जहां हैं,
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