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सुज्येष्ठा को यह बात तह तक छेद गई। मन ही मन हुआ : 'क्या मैं इस योग्य भी नहीं कि एक बार आँख तक न उठाई इन्होंने ?' . सुज्येष्ठा ने मुड़ कर न देखा। उसके नारीत्व का कोरक बिद्ध हो गया था। _____ सात्यकी बहुत चाह कर भी, फिर सुज्येष्ठा को कभी न देख सका। न पारिवारिक गोष्ठियों में, न वन-क्रीड़ाओं में।
और एक दिन बहुत भरे मन से रोहिणी ने सात्यकी को बिदा कर दिया। इस सागर-वेला को कब तक बाँध कर रख सकूँगी?
उस बिदा के क्षण सात्यकी ने वैशाली के सारे राजमहालयों के हर वातायन को एक बार बड़ी साधभरी आँखों से निहारा था। काश, वह सुगम्भीर चेहरा कहीं दीख जाता! रथ पर जाते हुए राह में, वैशाली के हर . पेड़-पालो से वह मुद्रा झाँकती दीखी थी। जो अब मानो सदा को कहीं अन्तर्धान हो गई थी।
गान्धार का वह मर्मीला और शर्मीला लड़का! सुज्येष्ठा उसे किसी भी तरह भुला न सकी। उसमें उसने एक अचिन्त्य गहराव देखा था। कैसा अदम्य था उसका आकर्षण। उसके मरम को जाने बिना ठहराव शक्य नहीं। .."हाय, कैसी भूल हो गयी मुझ से। वे तो स्वयम् ही मेरे एकान्त में आये थे। भले ही मुझे देखते ही चल पड़े थे, लेकिन मेरे सम्बोधन पर वे रुके भी थे। पर मैं अधिकार का दावा ले कर अभिमान कर बैठी। मेरी तिरियाहठ ने अनर्थ कर दिया । और अब तो दिशाएँ भी निरुत्तर हैं। कहाँ होंगे वे, कैसे होंगे वे? क्या मुझे भूल सके होंगे वे? "कौन उत्तर दे !'
रोहिणी भाभी से सुज्येष्ठा ने बहुत परोक्ष ढंग से कुछ पृच्छा की थी। उदास हो कर वे बोली थीं : 'सात्यकी का भेद मैं ही न जान सकी, तो औरों को क्या बताऊँ। वह इस धरती का जीव ही नहीं। उसका कहीं होना या न होना बराबर-सा ही है।' प्रतीक्षा रही कि रोहिणी भाभी कभी गान्धार जायेंगी, तो शायद कुछ पता चले। लेकिन रोहिणी तो फिर बरसों गान्धार गई ही नहीं। सुज्येष्ठा बहुत साहस कर के, वैसी ही सान्ध्य द्वाभा में एक बार 'चन्द्रप्रभ-चैत्य' के कमल सरोवर पर गयी थी। उस सीढ़ी पर कोई उपस्थिति महसूस हुई थी : पर कोई दिखाई तो नहीं पड़ा। हर वन-वीथी में बस एक लौटती पीठ ही दीखी थी।
"चप्पे-चप्पे पर उसकी आँखें बिछ गई थीं। शायद कोई गान्धार-ध्वजवाही रथ अचानक आता दीख जाये। शायद कोई पारावत या सूआ प्रणयपत्र ले कर सुज्येष्ठा की वातायन-रेलिंग पर आ बैठे। शायद कोई हरकारा या दूत आने की खबर मिले। अभी-अभी कुछ होगा : लेकिन कभी कुछ न हुआ।
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