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.. 'उसकी मूच्छित नग्न काया की ओर अपने उद्बोधन का हाथ उठा कर, मैं उसी क्षण घर से निकल पड़ा । श्रमण सूर्यमित्र मेरी प्रतीक्षा में ही थे । मैं उनके चरणों में प्रवजित हो, उनका अनुगमन कर गया ।
'उधर कनकधी अपनी अवदमित वासना से छटपटाती हुई, देहत्याग कर गयी । उसका काम-मानसिक शरीर अदृश्य व्यन्तरी के रूप में जन्मा । और वह व्यन्तरी अपनी भवान्तरों की एकाग्र वासना ले कर पद-पद पर मेरा पीछा करने लगी । उसने अपनी अव्याहत काम-शक्ति से मेरे उपस्थ पर अधिकार कर लिया । मेरे मन को तो वह छू न पायी, लेकिन मेरी देह के शक्ति केन्द्र को उसने अपनी प्राणहारी वासना से आक्रान्त कर लिया । उससे चाहे जब, इन्द्रिय-उत्थान होने लगा । विशेष कर आहार के समय आहारक शरीर का वह उद्वेलन मुझे अनिर्वार विवश कर देता । आहार का निवाला उठते ही, कामदण्ड उत्थान कर मानो चुनौती देता : ‘पहले मेरा उत्तर दो, तब खाओ!' मुझे अन्तराय हो जाती । आहार का रस और ओजस् क्या केवल इसी लिये है ? कोई बरबस मेरा कण्ठावरोध कर देता। मैं निराहार ही निकल पड़ता। हर दिन आहार बेला में वही उपद्रव । अन्तराय हो जाती । महीनों उपासे निकल जाते ।
'उस दिन ऐसे ही द्विमासिक उपवास के बाद पारण को निकला था । कोई अपेक्षा, प्रत्याशा तो नहीं थी । देह अपने स्वधर्म में विचर रही थी, आत्मा अपने स्वधर्म में । एक छाया तब भी मेरा पीछा कर रही थी। कि अचानक तुम्हारा पड़गाहन-स्वर सुनाई पड़ा, कल्याणी ! तुम्हारे प्रक्षालन से देहभाव विदेशीय गन्ध-सा तिरोहित हो गया । देह में क्या हो रहा था, पता ही न चला । तुम्हारे पयस् पान से अन्तिम परितुष्टि हो गयी । देह की शेष ग्रंथि भी खुल गयी । उस निर्वेद शान्ति में मैं विस्मित हो रहा । क्या ऐसा भी हो सकता है ?
कनकधी को ले कर मेरे मन में गहरा पूर्वग्रह बँध गया था । निश्चय हो गया था, कि मुक्ति-मार्ग की अटल बाधा है नारी । तुमने उस पूर्वग्रह की कुण्ठा का विपल मात्र में मोचन कर दिया । सचमुच पाया, कि बाधा स्वयम् ही राधा हो गयी है । गुरु का आप्त-वचन प्रमाणित हो गया। स्वयम् महासत्ता ही नारी रूप में प्रकट हो आयी । ऐसी कि, उसका पार नहीं। एक अक्षय्य मार्दव के सिवाय और कुछ भी तो नहीं । केवल अपनी अनन्या आत्मा । और कोई नहीं । ____ 'मैं ह्लादिनी महाशक्ति के उसी आह्लाद में विपुलाचल पर चढ़ आया । यहाँ एक बार फिर काम चरम पर पहुंचा, और स्वयम् ही अपने से निष्क्रान्त हो गया । और मैं शुक्लध्यान की आर्द्रा में भीजता, नहाता क्षपक-श्रेणि पर आरूढ़ हो गया । वहाँ से देखा, एक करुणामयी माँ को । प्राण मात्र
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