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'लेकिन नवोढ़ा कनकश्री ? वही एक दिन की पूर्ति, आज मेरे मुक्ति मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है । '
'अभीप्सा अविचल हो, तो बाधा ही राधा हो जाती है, वैशाख । एक बार तो गाँठ तुड़ा कर हाथ छुड़ा कर निकल ही जाना होगा । तथास्तु ! '
'कह कर, अतिथि श्रमण जैसे आये थे, वैसे ही अकस्मात् विहार कर गये ।'
'... उसके बाद, मैं घर में ही विरत भाव से रहने लगा । ऐसी तन्मयता छायी, कि बाहर आना क्षण भर भी अच्छा नहीं लगता था । सामने लोहित ज्वाला-सी दहकती वासनावती कनकश्री थी । उसका अम्भोज-सा उत्तान और उत्क्षिप्त रूप और यौवन था । एकाकी सेज में, एक सोहागन की छटपटाहट को हर रात सहना होता था ।
..... वह सब रत्ती - रत्ती प्रेक्षण करता हुआ, मैं खुली आँखों ही ध्यानावेश में मग्न हो जाता । मेरे अचल शरीर पर उसके दावों का अन्त नहीं था। मुझे उस पर करुणा हो आती । विवश भाव से उसे देखते हुए, आँखों ही आँखों कहता : 'कनकश्री, मैं क्या कर सकता हूँ तुम्हारे लिये ? उसी एक सुख की धृष्ट पुनरावृत्ति ? कितना नीरस, छूछा, फीका हो गया है वह सब ?'...लेकिन कनक मेरी आँखों की भाषा को कैसे पढ़ पाती ? मैं ही उसकी बेचैन रति के आलोड़न में, कहाँ उसका सहभागी हो पा रहा
था ।...
'कुछ समय बाद, अब मैं एक अलग कक्ष में ही रात सोने लगा । मानिनी कनक आँसूं घूंटती रही, पर उसने मेरे एकान्त में विक्षेप नहीं डाला । अब ऐसा कुछ कम हो चला, कि रात को मैं अपने कक्ष में निर्वसन नग्न हो कर ही सामायिक ध्यान करने लगा । कक्ष बन्द करने का भी भान मुझे साँझ के बाद नहीं रहता था । साँझ नमते ही मेरी आँखों में, ध्यानतन्द्री खुमारी की तरह घिरने लगती थी । उसी संवेग की मस्ती में वस्त्र फेंक कर, मैं अपने अन्तर - रस में डूब जाता ।
'एक रात के तीसरे पहर वह समाधि - सुख परा सीमा पर पहुँच गया । " ठीक तभी अचानक एक धक्के के साथ, मैं व्युत्थान कर बहिर्मुख हुआ । पाया कि जातरूप नग्न, विह्वल विक्षिप्त कनकश्री ने, अमरबेल की तरह मेरे सारे शरीर को चारों ओर से गूंथ लिया है उसके उस पाश का मैंने प्रतिरोध न किया । आत्मस्थ, अचल, उसे अवकाश देता गया । उस अवकाश में उसकी वासना की पकड़ व्यर्थ, निष्फल हो पड़ी। घायल सिंहनी-सी झपट कर उसने मेरे अंग-अंग नोंच डाले, काट लिये । फिर भी मैं डिग न पाया । तो वह बहुत हताश, हताहत हो कर मूच्छित हो गई ।
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