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________________ निर्भार हो गया है। मानो कि अन्तरिक्ष में स्थिर पंख ताने कोई गरुड़ उड़ रहा है। चल रहे हैं, कि खड़े हैं ? स्थिति में हैं, कि गति में हैं ? पता नहीं, कहना कठिन है। वे तो अचल भी हैं, और चलायमान भी। यही तो मौलिक वस्तु-स्थिति है। कूटस्थ भी, क्रियाशील भी। परात्पर उड़ान का यह कैसा आह्लाद है ! यह किसके स्पर्श का जादू है ? ... और जाने कब वे योगी विपुलाचल पर चढ़ आये। भरी दोपहरी के प्रखर सूर्य-तले, वे सम्मुख आयी एक ऊबड़-खाबड़ चट्टान पर बैठ गये। कि तभी उन्हें सामने खड़ा एक विशाल न्यग्रोध वृक्ष आमंत्रण देता दिखायी पड़ा। कितना विस्तृत है उसकी छाया का परिमण्डल । पर तपस्वी तो शीतल छाया की शरण नहीं खोजता। फिर यह ऐसा आवाहन क्यों, जिसे टाला नहीं जा सकता। न्यग्रोध के मूल-देश में एक स्निग्ध शिला उरुमण्डल-सी उद्भिन्न हो कर गर्भाधान को आकुल दिखाई पड़ी। उन्होंने फिर इन्द्रिय-वर्द्धन का प्रबल आवेग अनुभव किया। योगी का वह उत्तान शिश्न पारान्त पर पहुँच कर, देह को भेद कर, विदेह में प्रवेश कर गया। अपरिसीम अवकाश उस शिलातल में खलता आया। और जाने कब वैशाख मुनि उस खलाव में ध्यानस्थ दिखाई पड़े। - काल वहाँ स्थगित दीखा। योगी ने अपने को नीली आभा में तैरता अनुभव किया। गहराई में तलातल पार उतर गये। ऊँचाई में ऐसी उड़ान, कि आकाश ही पंख बन गया। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति, सब अपने तत्त्व में लयमान दिखाई पडे। शरीर सांस में लय हो गया। साँस प्राण में विरम गयी। इन्द्रियाँ तन्मात्रा हो कर, चिन्मात्रा हो गईं। प्राण मन में अवसान पा गया। मन चेतस् के मृणाल में संक्रमण करता, चैतन्य में विश्रब्ध हो गया। कार्मिक पुदगल परमाणुओं के पाश अदृश्य माटी की तरह झड़ने लगे। मन के सूक्ष्मतम आवरण भी विदीर्ण हो गये। शुद्ध स्वभावी दर्शन और ज्ञान, दीपक और उसके प्रकाश की तरह युगपत् प्रभास्वर हो उठे। शुक्ल-ध्यान की, अमृत से आर्द्र चाँदनी में योगी भींजते ही चले गये। उस परम स्नान में एक पर एक अनेक कोश उतरते गये। वे हठात क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हो गये। समयातीत दर्शन और ज्ञान पर पड़े, मोह और अन्तराय के सूक्ष्मतम आवरण भी छिन्न हो गये । 'अन्तरमुहूर्त मात्र में उनका चैतन्य, अपनी अन्तस्थ कैवल्य-प्रभा से आलोकित हो उठा । त्रिकाल और त्रिलोक उनके करतल पर, स्फटिक गोलक के समान घूमते दिखाई पड़े। वैशाख मुनि सयोग केवली होकर, अपने अन्तर-सरोवर के महासुख-कमल में विहरने लगे। मकरन्द की तरह, उनके मख से परावाणी उच्चरित होने लगी। मन, वचन, काय में संचरित हो कर उनकी कैवल्य-धारा कण-कण, क्षण-क्षण में व्याप चली। "चेलना को सम्वाद मिला, कि विपुलाचल पर वैशाख मुनि को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। वे अर्हत् केवली हो गये। सुनते ही चेलना की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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