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चली गई । उसने मुनि के मन में भी कहीं कोई रोध या विकार नहीं पाया। वह पार तक देखती गयी। मुनि स्व-रूप में लीन थे। देह और देह के बीच निरा शून्य था। फिर यह किसका मन है, किसकी पर्याय है, किसका विकार है ? वह काँप आयी। गहरी अनुकम्पा से द्रवित हो गयी। चेलना की आँखें अब अश्लील कुछ देख ही नहीं पातीं, श्लील ही देखती हैं। चर्म पर उसकी दृष्टि ठहरती नहीं, चरम पर ही जा कर विरमती है। सो उसे जुगुप्सा तो हो ही कैसे सकती थी।
"तो क्या यह कोई बाहरी छाया है ? कोई पर रूप या पर पर्याय यहाँ घट रही है ?"ओ, समझ गयी। यही तो अन्तराय है, जिसके चलते वैशाख मुनि महीनों आहार ग्रहण नहीं कर पाते। तपस्वी एक दम ही क्षीण हो चले हैं। चेलना ने फिर मन ही मन प्रार्थना की : 'मेरे अन्तर्देवता, इस बार यदि यह अन्तराय न टली, तो मैं भी तब तक आहार-जल ग्रहण न करूंगी, जब तक ये न करें। मेरा पारण अब इनके साथ ही हो सकेगा!' ___ और चेलना ने मातृ-वात्सल्य से विगलित हो कर, शान्त समर्पण भाव से तपस्वी का अंग लुंछन किया । और उस देह-विक्रिया को दुर्लक्ष्य कर वह उनके पाणिपात्र में उत्तम फल और पायस अर्पण करने लगी। मुनि एकस्थ भाव से आहार लेते गये । और चेलना की निगाह से यह बच न सका, कि आहार के प्रत्येक कवल के साथ मुनि का उपस्थ अधिक-अधिक वर्द्धमान हो रहा था। लेकिन यह क्या, कि मुनि की चेतना उस उत्तेजन से अछती ही रही ! "सहसा ही हाथ खींच कर तृप्त तपस्वी ने, माँ का स्तनपान कर परितुष्ट हुए शिशु की तरह एक बार चेलना की ओर सस्मित देखा। और वे उन्मनी मुद्रा में ध्यानस्थ हो गये।
चेलना की रुकी सांस जैसे फांसी से छूट गयी। सदेह मुक्ति का सुख अनुभव किया उसने। लमा कि उसका नारीत्व कृतार्थ हो गया। उसका मातृत्व जैसे उमड़ कर चराचर में व्याप गया।
आहार समापन होने पर, फिर से अंग-प्रक्षालन और लंछन के बाद, जब मुनि की आँखें खुलीं, तो वे एक बार फिर चेलना के मुख पर व्याप गई। मुनि फिर ईषत् मुस्करा आये। चेलना ने समझ लिया कि यह सीमान्त वचनातीत है। ___वैशाख मुनि तत्काल विहार कर गये। चेलना उनकी उस गतिमान पीठ को देखती रह गयी।
वैशाख मुनि किस ओर जा रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम। गन्तव्य ही इस क्षण उनकी गति हो गया है। चलने में कोई आयास नहीं । शरीर कितना
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