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________________ २१० मातृ-चेतना, जाने कैसे तो प्रीति-जल से सम्भृत हो आई। जैसे आषाढ़ की पहली कादम्बिनी । और उस भीतर की बादल-बेला में, उसके जाने किस अज्ञात अन्तरित घर में, कोई सूरज दीया हो कर जल उठा। कैसे तो आत्मीय आलोक ने सारे तन-मन को अणु-अणु में उजाल दिया। वह पल भर भी और रुक न सकी। महाराज श्रेणिक उन दिनों अपने एकान्त में प्रायः ध्यानस्थ रहते थे। सो चेलना अकेली ही, बड़ी भोर रथ पर चढ़ कर विपुलाचल पर चली गयी । कैवल्य के प्रभामण्डल से आभावलयित अर्हन्त वैशाख प्रभु को सामने पा कर वह आत्म-विभोर हो गयी। त्रिवार वन्दना, प्रदक्षिणा कर वह केवली के सम्मुख, नाति दूर, नाति पास, जानू के बल बैठ गयी। वैशाख मुनि उसके हाथों निरन्तराय आहार ग्रहण कर सीधे विपुलाचल पर चढ़ गये थे, और कायोत्सर्ग में लवलीन हो गये थे। यह उदन्त उसे मिल गया था। तभी से उसके मन में खटक बनी थी, कि वे जाने किस असुर शक्ति से संघर्ष कर रहे होंगे? वे उस पर-पर्याय के उपसर्ग से शीघ्र मुक्त हों, यही प्रार्थना उसके जी में दिवा-रात्रि चल रही थी। "आज उन्हें केवली रूप में विनिर्मुक्त देख कर, उसके आनन्द की सीमा नहीं थी। उसके मन की जिज्ञासा उदग्र हो आई, कि पूछे इस त्रिकालदर्शी योगी से, कि क्या रहस्य था एक कठोर वीतरागी तपस्वी के उस उपस्थउत्थान का? वह पशोपेश में थी कि कैसे पूछे ? उस समय अर्हत् एकाकी थे, फिर भी देवी का साहस न हुआ कि वैसी बात पूछे। उसकी चेतना में एक सुख ख़ब घना हो कर, गहरा होता जा रहा था। कामदेव के तने हुए पुष्प-धनुष को व्यर्थ करके, उन्होंने निरन्तराय उसके हाथों पायस पिया। वे शिशुवत् प्यासे ओंठ, उनका वह आत्मीय पायस पान ! ... और फिर उनकी वह परितृप्त दृष्टि । और वे एक स्मित दे कर बिन बोले ही चले गये थे। हठात् महादेवी चेलना को सुनाई पड़ा : 'तुम्हारा पयस् परम रसायन सिद्ध हुआ, देवी। मुझी में से उठा काम, चरम पर पहुंच कर, मुझो में लय पा गया। मैं निष्क्रान्त हो गया। क्षपक श्रेणि के शिखर पर से, केवली ने तुम्हारे स्नेह-चिन्ताकुल मन को देखा है। तुम्हारा मनोकाम्य पूरा हुआ। अर्हत् महावीर जयवन्त हों!' ___ झुकी आँखों, फलभार-नम्र-सी चेलना, अर्हत् के पद-नखों को अपलक निहारती रही। सोचा, इनसे मेरा प्रश्न छपा तो नहीं। ये जाने मेरी जिज्ञासा, और मुझे आलोकित करें। कि ठीक तभी अर्हत् वैशाख के भीतर से अनाहत ओंकार ध्वनि उठती सुनाई पड़ी । और वह अनक्षरी, सर्वबोधिनी दिव्यध्वनि, न्यग्रोध वृक्ष के ऊर्ध्व-मूलों और अधो-शाखाओं में से शब्दायमान होने लगी। चेलना ने सर उठा कर, योगी के तेजोवलयित, शान्त मुख-मण्डल को देखा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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