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________________ २०४ छुईमुई हो रही । राजा को लगा कि जैसे एक और भवान्तर हो रहा है । जनम जनम की इस पहचान को वे कैसे तो झुठलायें । 'इसी आभीरनी ने आप की मुद्रिका चुराई है, तात । वह मनो-मुद्रिका इसके अंचरे की कोर में बंधी मिली। चाहो तो मुद्रिका लोटा दो, आभीरी । वह सम्राट की अंगूठी है ! ' 'मनोमुद्रिका ? कैसी मनो-मुद्रिका ?' सम्राट चौकन्ने से पूछते रह गये । अभय की तीरन्दाजी को राजा ने भांप लिया । ...और अहीर-कन्या पर जैसे आभ टूट पड़ा। लड़की को कहीं जगह न दीखी, कि जहाँ वह लुप्त हो जाये। मुद्रिका उसने चुराई ही नहीं, तो क्या लौटाये, किसे लौटाये ? वह अयानी बाला बड़ी परेशानी में पड़ गयी। राजा से वह सहा न गया । वे अधीर होकर बोल ही तो पड़े : 'एक मुद्रिका क्या इस मुग्धा सरला पर तो तीन भुवन का साम्राज्य निछावर है । यह हमारी भव-भव की परिणीता है, अभय राजा । हमारे गान्धर्ब परिणय का उत्सव रचाओ !' बात की बात में कौमुदी का रासोत्सव, गान्धर्व परिणय के रसोत्सव में बदल गया । नृत्य-गान में झूमते, सहस्रों नर-नारी के घूमते मण्डलों के बीच ही, बाँसुरी की तान पर, और शंख-ध्वनियों के नाद के साथ भाँवरें पड़ गयीं । पाणिग्रहण हो गया । उस निर्दोष अंगों वाली बाला को ब्याह कर, सम्राट ने उसे अपने एक और मनोदेश की महारानी बना लिया । महाराज जब नवोढ़ा को लेकर अन्तःपुर में आये, तो चेलना ने हँस कर कहा : 'मेरे प्रिय के कितने रूप, कितने रहस्य, वे तो अनन्त और सदावसन्त ! वे उम्र में नहीं जीते, मुझ में जो जीते हैं !' राजा देख कर स्तब्ध । इस आकाशिनी में श्रेणिक के हर फ़ितूर को अवकाश है । समय का हिरन कब कहाँ जा निकला, पता ही न चला। लेकिन श्रेणिक के जीवन में जैसे सारा कुछ अनबीता ही रह कर नया होता चल रहा है। बहुत दिन बीत जाने पर, एक बार महाराज कुछ दिनों के लिये अपनी सारी रानियों के साथ वन में वसन्त क्रीड़ा को गये। वहाँ रातुल पुष्पित पलाशवनियों में राजा अपनी रानियों के साथ कई तरह के खेल खेलने लगे । एक दिन खेल में दाँव लगा कि जो जीते वह हारने वाले की पीठ पर सवारी करे । खेल खूब जमा । अनेक बार राजा भी हारे, और उनकी पीठ पर रानियों के सवारी करने का मौक़ा आया। पर वे सारी कुलांगनाएँ शालीनता बश वैसा न कर सकीं। राजा की पीठ पर चढ़ने के प्रसंग को, वे अपना अधोवस्त्र राजा की पीट पर डाल कर ही टाल देतीं। और सब ख़ब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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