SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ और शहनाई की तानों पर आसमान छू रहा था। श्रेणिकराज और अभय भी आते ही उस लोक-प्रवाह में गोता लगा कर नाच-गान करने लगे। उनकी जयकारों और जयगानों से रंगमण्डप में कोई नया ही समा बँध गया। पुराणकार कहता है कि : 'चाँदनी रात में उस रासोत्सव के मर्यादाहीन संमर्द में, सम्राट का हाथ उस आभीर कुमारी सुगन्धा की ऊँचे स्तन वाली छाती पर पड़ गया । तत्काल राजा के मन में उस अहीर बाला पर राग उत्पन्न हो गया।''उधर अपने नीले लहंगे के जरी-गोटेदार घेर को मयूरी की तरह तान कर नाचती अहीर बाला के हाथों से लहंगे के छोर छूट गये। वह पीनस्तनी रोमांच से पसीज कर झुक गयी और अपने अंचरे में छाती छुपाती हुई, लाज से नम्रीभूत हो रही। राजा ने उसे एक चितवन देखा, और चुपचाप कपनी नामांकित मुद्रिका निकाल कर उसकी पीठ पर पड़े आंचल के छोर में बांध दी। शास्त्रकार कहता है, कि वह मानो सम्भोग का वाग्दान था! ___ राजा की कोई करतूत अभय से छुपी नहीं रह पाती। सो अभय ने उस बाला का पल्ला खींच उसे युगल-नृत्य का आमंत्रण दिया। अहीर कन्या चौंकी और लाज से मरती-सी अभय के संग डांडिया-रास खेलने लगी। कुछ देर बाद अपने कंधे पर कोई स्पर्श पाकर अभयकुमार चौंका। 'ओ, अच्छा, बापू !' कह कर वह राजा के पास चला गया। राजा हाथ पकड़ उसे दूर ले गये। व्यग्र स्वर में बोले : 'मेरी नामिका मुद्रिका किसी ने चुरा ली, अभय, जरा चोर का पता तो लगाओ! राजा का श्वास तेजी से चल रहा था। पिता के हर दर्द का दर्दी अभय, राजा की उस मदनाहत मुद्रा को एकटक देखता रहा, फिर बोला : 'मुद्रिका का चोर तो अभी पकड़ लाऊंगा तात, लेकिन किसी के मन के चोर को कैसे पकड़ पाऊँगा ?' 'मन-मन के मरम में विचरते अभय के लिये वह भी तो असम्भव नहीं !' राजा ने गोपन परिहास किया। "तो पिता आज की चाँदनी गत में, फिर कहीं अपना हृदय खो बैठे हैं ! अभय के सिवाय यह कौन जान सकता है। और इसका निकाल भी और कौन ला सकता है ? ____ 'अपना चोर अपने ही भीतर जो बैठा है, तात, उसका पता कौन दे ? खैर, आपकी अंगूठी का चोर तो मेरे अंगुष्ठ से बच कर जा नहीं सकेगा। उसे अभी हाजिर कर दंगा।' और तुरन्त अभयकुमार ने घण्ट बजाकर उद्घोष किया : .. 'अरे सुनो लोकजनो, इस स्वच्छन्द रास-क्रीड़ा में बहुतों की चोरी हो गई है। सभी तो कुछ न कुछ गंवा बैठे हैं। राजाज्ञा है कि सब चोरों को पकडू, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy