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बाला, और वह भी यह दुर्गन्धा, सत्तर वर्ष के श्रेणिक की रानी होगी? यह सब क्या सुन रहा हूँ, प्रभु ?"
'ऋणानुबन्ध के उम्र नहीं होती, श्रेणिक ! वे यथाकाल पूरे हो कर रहते हैं। कर्म का खेल बड़ा संकुल, अप्रत्याशित और अटल होता है, राजन् । अपने ही बाँधे पुण्य-पाप को भोगे बिना, योगी का भी निस्तार नहीं। तेरे भोगानुबन्ध अन्तहीन हैं, श्रेणिक । अपने में अचल रह, राजा, और सारी पर्यायें जलप्रवाह में मछली की तरह तैरती निकल जायेंगी। उससे जल के जलत्व में क्या अन्तर आ सकता है !'
राजा का मन विकल्प से छूट कर, अकल्प के महा-अवकाश में सरित होता चला गया। वह प्रभु को नमन कर, अपना तमाम साम्राजी वैभव श्रीपाद में मन ही मन समर्पित कर, वैसे ही नंगे पैरों, अपने राजमहालय को लोट आया।
____ इधर यह कैसा तो अकस्मात् घट गया। ठीक मुहूर्त पल आते ही, अनायास पूर्व कर्म की अकाम निर्जरा से उस दुर्गन्धा बच्ची की दुर्गन्ध जाती रही। ऐसे ही समय, एक वन्ध्या आभीरी (अहीरन) दूध की कलसी उठाये वहाँ से गुजरी। उसकी दृष्टि बालिका पर पड़ते ही, वह जाने कैसी ममता से अवश हो गई। उसने उस बच्ची को अपनी ही बेटी कह कर उठा लिया। अनुक्रम से उस आभीरी ने अपनी उदर-बात पुत्री की तरह बड़े लाड़-कोड़ से उसका ल लन-प लन किया। काल पा कर उस आभीर-बाला के लावण्य और यौवन में पूनम के समुद्र उछलने लगे। ऐसा रूम, कि हर बार देखने पर नया ही दिखाई पड़े। ___ अन्यदा मनोहर कीमुदी उत्सव आया। राजगृही की आभीर-पल्ली में उसकी भारी धूम मच गई। रंग-गुलाल और शारदीय फूलों की बौछारों से सारी राजगृही गमगमाने लगी। आभीर रमणियां गीत-नृत्य करती आई, और बड़ी मनुहार से सम्राट श्रेणिक और अभय राजकुमार को कौमुदी उत्सव में आने का आमंत्रण दे गई। पिता-पुत्र दोनों ही तो एक-से लीला-चंचल, खिलाड़ी और कौतुकी। हर कहीं रमते-रमते ही राम हो रहते हैं। श्रेणिक और अभयकुमार जरी किनार के श्वेत वस्त्रों में सज्ज हो कर, मुक्ताहार, मालती-माला और फुलल धारण किये कौमदी उत्सव में आये । ऐसा लगता था, जैसे दोनों ही बाप-बेटा ब्याहने को घोड़ी चढ़े हों।'
योगायोग कि इस बीच उस दुर्गन्धा बालिका के तन में कोई दैवी सुगन्ध आने लगी थी। सो आभीरनी माँ ने उसका नाम रख दिया था सुगन्धा। वह उद्भिन्न यौवना रूपसी सुगन्धा भी, अहीर वेश में सज्ज होकर, कौमुदी उत्सव में मातुल हो कर नाच-गान कर रही थी। उत्सव का प्रवाह मृदंग की धमक
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