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'सुने ! वैशाली की तरणाई, उसका तारुण्य मैं हूँ, उसकी काम-केलि मैं हूँ। मेरे कैवल्य से बाहर कुछ भी नहीं। मुझ से तुम क्या छुपाना चाहते हो? मुझ से तुम्हारा पाप भी नहीं छुपा, आप भी नहीं छुपा। तुम्हारे अस्तित्व का कण-कण, क्षण-क्षण मेरे ज्ञान में तरंगायित है। फिर मुझ से कैसा बिलगाव, मुझ से कैसा दुराव ?
_ 'मेरे परम प्रिय प्रेमिक जनो, सुनो । तुम्हारे तारुण्य और काम का प्रेमी है महावीर, इसी से वह कामेश्वर सदा तरुण है । मेरा कौमार्य वीतमान नहीं, नित नव्यमान है । सदा-वसन्त है अर्हत् की चेतना । परात्पर चैतन्य के भीतर से ही वह काम प्रवाहित है, जिसने तुम्हें इतना अवश कर दिया है। काम की एकमात्र अभीप्सा है-अपनत्व, आप्त भाव, किसी के साथ अत्यन्त तदाकार, एकाकार, अभिन्न हो जाना । मैं तुम्हारे उस काम का अपहरण करने नहीं आया, उसका वरण करके, उसे परम शरण कर देने आया हूँ। क्या तुम्हें अपनी प्रियाओं की गोद में वह परम शरण कभी मिली ? मिली होती, तो ऐसी सर्वनाशी जलन और भटकन क्यों होती? तुम्हारी प्यास का अन्त नहीं, पर तुम्हारे विलास का क्षण मात्र में अन्त आ जाता है । उत्संग भंग हो जाता है, तुम परस्पर से बिछुड़ कर, पल मात्र में परस्पर को पराये और अजनबी हो जाते हो । जो सम्भोग भंग हो जाये, स्खलित हो जाये, वह सम-भोग कैसे हो सकता है, सम्पूर्ण भोग कैसे हो सकता है ? वह तो विषम और अपूर्ण भोग ही हो सकता है । तुम्हारा रमण अपने में नहीं, पराये में है । कुछ पर है, पराया है, अन्य है, इसी से तो ऐसी अदम्य विरह-वेदना है । तुम्हारा रमण स्व-भाव में नहीं, पर-भाव में है । इसी से वह पराधीन है, परावलम्बी है । पराधीन प्यार को एक दिन टूटना ही है, पराजित होना ही है । जिसमें स्खलन है, वह रमण नहीं, विरमण है। जिसमें योग नहीं, वह भोग नहीं, वियोग है। ... ..'सुनो देवानुप्रियो, महावीर तुम्हारे काम को छीनने और तोड़ने नहीं आया, उसे अखण्ड से जोड़ कर अटूट, अक्षय्य, अस्खलित कर देने आया है । वह तुम्हारे आलिंगनों और चुम्बनों को भंग करने नहीं, उन्हें अभंग और अनन्त कर देने आया है। सत्य-काम वह, जिसमें अन्तर न आये, जिसमें अवरोध और टकराव न आये । जिसमें रक्त-मांस और हड्डियाँ न टकरायें । सच्चा काम तो अगाध और अक्षय्य मार्दव और सौन्दर्य है । उस सत्य-काम के आलिंगन में अन्यत्व नहीं, अनन्य एकत्व होता है । उसमें होता है एक अव्याबाध लोच, लचाव, नम्यता, सुरम्यता, सामरस्य । उसमें देह, प्राण, मन और इन्द्रियाँ-सब स्व-भाव में लीन होकर अपने ही में शांत शयित हो रहते हैं । ऐन्द्रिक विषय मात्र तन्मात्रा में सूक्ष्मातिसूक्ष्म हो कर, अन्ततः चिन्मात्रा में
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