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सहज काम को निर्ग्रथ और मुक्त करने के लिये । विकृत हो गई रति को, प्रकृत और सम्वित् बनाने के लिये । पतित हो गये काम के पुनरुत्थान के लिये । तब पार्वती की आत्माहुति में से नूतन और मुक्त काम उत्थायमान हुए । सृष्टि फिर सहज और प्रसन्न हो गई।''
श्रीभगवान् एकाएक चुप हो गये । एक सन्नाटा वातावरण में कोई अपूर्व सम्वेदन उभारने लगा। मौन इससे अधिक गर्भवान शायद पहले कभी न हुआ। अनायास पारमेश्वरी दिव्य ध्वनि उच्चरित होने लगी :
'ओ वैशाली के तरुणो, तुम महावीर से नाराज़ हो गये ? सुनो मेरे प्रियतम युवजनो, कल की सन्ध्या में वैशाखी पूर्णिमा का उदीयमान पीताभ चन्द्रमण्डल 'महावन' में झाँकता दिखायी पड़ा । परम प्रिया के आनन का दर्शन पाया । प्रमदवन की कोयल ने डाक दी। उसके आम्रवनों की अँबियों ने मुझे अपने में खींचा। औचक ही एक बाला किसी आम्र - डाल से अँबिया-सी चू पड़ी । वह अँगड़ाई लेती हुई उठी, और नाना भंगों में अपने तन को तोड़ती हुई, सारे महावन में एक उन्मादक लास्य नृत्य करने लगी । “अचूक था नंग का वह आवाहन । और अनंगजयी महावीर बरबस ही मोहरात्रि के उस महाकान्तार में प्रवेश कर गया । अखण्ड रात उसके मेचक केशों की शैया में महावीर अधिक से अधिकतर दिगम्बर होता गया । यहाँ तक कि उसका तन ही तिरोधान पा गया । केवल एक नग्न लो उस निखिल - मोहिनी के वक्षोजमण्डल पर खेलती रही । और उसमें वह परम कामिनी गलती रही, गलती रही, और अन्ततः निरी नग्न विदेहिनी हो कर उस नग्न जोत में मिल गई ।...'
और श्रीभगवान् सहसा ही चुप हो गये । किन्तु एक महाशून्य अनेक मण्डलों में उत्थान करता हुआ, सृष्टि के स्रोत पर नये बीजाक्षर लिखता रहा । श्रीभगवान् का क्षण मात्र का मौन, निर्वाण का तट छू कर फिर मुखरायमान हुआ :
‘वैशाली के विलासियो, वारांगनाओ, प्रणयाकुल युवा-युवतियो, मैं तुम्हारे केलि-कानन में चला आया, तो कल साँझ तुम वज्राहत से रह गये । अपने मनों को मार कर महावन के किनारों से ही लौट आये। मेरे वहाँ होते, तुम्हें अपने प्रमदवन में प्रवेश करने की हिम्मत न हुई । तुम खिन्न और उदास हो गये ।
'तो क्या मान लूँ कि तुम्हारा प्रमदवन पापवन है ? मान लूँ कि सन्ध्याओं और रात्रियों में तुम वहाँ रमण करने नहीं आते, प्यार करने नहीं आते, पाप करने आते हो ? जहाँ पाप हो, वहीं दुराव हो सकता है। जहाँ आप हो, वहाँ दुराव कैसे हो सकता है ?
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