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मार्ग में चले जा रहे सैनिकों को अचानक दिखाई पड़ा, कि तुरत की जन्मी एक शिशु - बालिका को, राह किनारे के एक वृक्ष-तले, हाल ही में कोई छोड़ गया है । जैसे कोई नरक का अंश वहाँ आ पड़ा हो, ऐसी तीव्र दुर्गन्ध उस परित्यक्ता बालिका के शरीर से छूटती सब को अनुभव हुई । सबने कुम्भक प्राणायाम की मुद्रा में उँगलियों से अपने नाक भींच लिये । सम्राट ने अपने परिजन से पूछा : क्या बात है ? परिजन ने बताया कि सद्य प्रसूता कोई दुर्गन्धा बच्ची राह किनारे छोड़ दी गयी है । उसकी दुर्गन्ध से सारे परिकर ने नासिका मूंद ली है ।
....अर्हन्त द्वारा उपदिष्ट बारह भावनाओं से भावित राजा के चित्त में, उस दुर्गन्ध से कोई जुगुप्सा न जाग सकी । ज्ञान मात्र किया उसका और उपराम हो गये। लेकिन बालिका पर दृष्टि पड़ते ही राजा के हृदय में प्रबल संवेग जागा । उत्कट विराग का बोध हुआ । सम्राट तुरन्त ही शोभायात्रा से निकल कर आगे चल पड़े। देवी चेलना भी अनुगामिनी हुई।
समवसरण में प्रभु का वन्दन करने के बाद, श्रेणिकराज ने पूछा :
'त्रिकाल - दर्शी भगवन्, पूछता हूँ, राह में छोड़ दी गई उस बालिका की देह से ऐसी तीव्र दुर्गन्ध क्यों फट रही है ?"
प्रभु ने कोई उत्तर न दिया । वे मन, वचन, काय से परे त्रिकाली ध्रुव में निस्पन्द दीखे । कि तभी गन्धकुटी के पाद-मूल में से उत्तर आता सुनाई पड़ा :
'जानो राजन्, तुम्हारे आसपास के प्रदेश में ही शाली नामक ग्राम में, धनमित्र नामा एक श्रेष्ठी रहता था। उसके धनश्री नामा एक पुत्री हुई थी । अन्यदा श्रेष्ठी ने धनश्री का विवाहोत्सव रचाया। तभी ग्रीष्म ऋतु में विहार करते कुछ श्रमण वहाँ आ पहुँचे । श्रेष्ठी ने अतिथि तपस्वियों को द्वार पर पा कर धन्यता अनुभव की । गद्गद् हो कर बेटी धनश्री को आज्ञा दी कि उनका आवाहन - पड़गाहन कर उन्हें आहार- दान करे । विनयवती धनश्री तत्काल मुनियों को प्रतिलाभित करने को उद्यत हुई । पसीने और राह की गर्द से मलिन अंग वाले उन अनगारों के शरीर से तीखी दुर्गन्ध फूटी पड़ रही थी । आहारदान करते समय धनश्री को वह असह्य हो गई । उसका मन मुनि - भक्ति से विरत हो गया, ग्लानि के मारे उसे वहाँ ठहरना दूभर हो गया । जैसे-तैसे आहारदान सम्पन्न कर, श्रमणों की ओर देखे या नमन किये बिना ही वह भाग खड़ी हुई ।
'वह अपने कक्ष के एकान्त में जा बैठी । सुगन्ध में बसी, निर्मल वस्त्र वाली, अनेक सुवर्ण-रत्न के अलंकारों से भूषित, अंगराग से आलेपित, अपने ही सौन्दर्य, सुगन्ध और श्रृंगार में आत्म-मुग्ध वह बाला सोचने लगी : 'अर्हन्त,
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