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________________ १९८ छत्र तले महाराज, महारानी चेलना के संग विराजित हैं । गजेन्द्रों के घण्टा - रव से दिशाओं में नाद के पूर उमड़ रहे हैं । हेषा ध्वनि से मानो पर - स्पर वार्तालाप करते हज़ारों अश्व वाह्याली रूपा रंगभूमि में नटों के समान पृथ्वीतल को रौंद रहे हैं। सम्राट की विशाल सेना, आकाश में से उतरते मेघमण्डल के समान मयूरी छत्रों से शोभित थी । रथों और वाहनों के नृत्य करते घोड़ों की स्पर्धा में राजा का रत्न ताटंक भी झूमझाम कर नाच रहा था । ऐसा लगता था, मानो वह उसके आसन के साथ ही उत्पन्न हुआ हो सम्राट और साम्राज्ञी पर जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा ने उतर कर श्वेत छत्र ताना है, और वारांगनाएँ गंगा और यमुना के समान चंवर उन पर ढोल रही हैं, शीतल फूल-पल्लव के विजन डुला रही हैं। और सुवर्ण अलंकारधारी भाट चारण मगधनाथ का यशोगान कर रहे हैं । ... आधी राह पहुँच कर ही सम्राट की आकस्मिक आज्ञा से शोभायात्रा अटका दी गई । ' इरावान हस्ति' नीचे बैठ गया । उससे उतर कर सम्राट ने गंभीर स्वर में अपने मंत्रियों और आमात्यों को आदेश दिया : 'साम्राज्य का यह समस्त वैभव में तीर्थंकर महावीर के श्रीचरणों में -अर्पित करता हूँ । अब यह लौट कर राजगृही नहीं जायेगा । सैन्य, परिकर, हजारों सुन्दरियाँ, रानियाँ, सारे राजपुत्र पांव पैदल ही आगे-आगे चलें, और 'वनलीला चैत्य' में पहुँच कर प्रभु के मानस्तम्भ तले नैवेद्य हो जायें । चक्रवर्ती की सम्पदा अब हमें निर्माल्य और निःसार अनुभव होती है । वह हमारी त्रिलोकी सत्ता - सम्पदा का अपमान है। हम बहुत आगे निकल चुके, अभय राजा ! आज्ञा यह ज्ञातृनन्दन प्रभु की है। हमारी नहीं। इस पर तत्काल कार्यवाही हो ।' तपाक् से अभयकुमार ने हँस कर कौतुकी मुद्रा में पूछा : 'जड़ वैभव को नैवेद्य करने का अधिकार तो, बेशक, सम्राट को है ही । लेकिन पूछता हूँ, महाराज, यह सचेतन राज-परिकर ये अन्तःपुर की सारी रानियाँ, सुन्दरियाँ, ये मंत्री, आमात्य, सेनानी, सेनाएँ ? क्या ये आपकी इच्छा के खिलौने मात्र हैं ? जब तक ये स्वयम् न चाहें, तब तक आप इन्हें केसे समर्पित कर सकते हैं ? " 'तीर्थंकर महावीर के मानस्तम्भ के सम्मुख देखता हूँ, किसकी स्वेच्छा टिक पाती है ? राजाज्ञा का तत्काल पालन हो, अभय राजा ! ' ..और तदनुसार पैर-पैदल ही विशाल शोभायात्रा चल रही है । राह में दर्शकों की पाँतें यह दृश्य देख कर मतिमूढ़ हो गई है। रिक्त हाथी पीछे चल रहा है, और सम्राट - साम्राज्ञी नंगे पैरों पैदल चल रहे हैं, वन की कंकड़कांटों भरी धूलभरी राह में । महाश्चर्य ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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