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आभीरी की हंस लीला
एक दिन सहसा ही श्री भगवान समवसरण में से अन्तर्धान हो गये । फिर बहुत दूर पीठ दे कर जाते दिखाई पड़े। भूमि से एक हाथ ऊँचे, उनके अन्तरिक्ष में उम भरते चरणों का सौंदर्य कैसा निराला था ।
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फिर उदन्त सुनाई पड़ा : त्रिशला - नन्दन प्रभु जन से निकल कर वन में चले गये हैं । चम्पारण्य की अभेद्य गुंजानता को चीरते हुए, वे उसमें राहें बना रहे हैं। जल में थल में, अम्बर में वे जहाँ भी चलते हैं, एक प्रशस्त राह खुलती चली जाती है।
''''भगवान् सचराचरा प्रकृति के क्रोड़ में निर्बन्ध विचर रहे थे। उनके चलने से धरणी लचीली हो रही थी । कण-कण में मार्दव, आर्जव, करुणा, मुदिता, मैत्री का संचार हो रहा था । सुनाई पड़ता था, कि प्रभु के विहार से हिंस्र प्राणियों से भरा चम्पारण्य अभयारण्य हो गया था । सिंहनी की छाती पर शतक और मृगले निर्भय - निश्चिन्त सोते थे । वहाँ उन्हें परम सुरक्षा की समाधि अनुभव होती थी ।
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... कई महीनों बाद एक सबेरे राज सभा में वनपाल ने आकर, मगधनाथ से प्रणाम निवेदन किया और सम्वाद दिया कि 'ज्ञातृनन्दन महावीर प्रभु राजगृही के 'वनलीला चैत्य' में समवसरित हैं।' सुन कर आज सम्राट का हर्ष हिये में न समा सका। उन्हें लगा कि यह कोई नये आविर्भाव का मुहूर्त है | आनन्द से उन्मेषित होकर उन्होंने आज्ञा दी :
'महादेवी से कहो, अभय, हम आज मगध के निःशेष साम्राजी वैभव के साथ श्री भगवान् के वन्दन को जायेंगे। हमारे तमाम ऐश्वर्य और सत्ता को आज धरातल पर ले आओ, अभय । देखो, कहीं कुछ बचा न रह जायें ? '
'सम्राट की आज्ञा का अक्षरश: पालन होगा ।' कह कर अभयकुमार तैयारी के लिये चल दिये ।
महावीर का पुराणकार कहता है:
और यह देखो, भूचर शत्रेन्द्र के समान, कल्प-विमानों को चुनौती देते ऐश्वर्य के साथ, समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी श्रेणिकराज श्रीभगवान् के वन्दन को जा रहे हैं। अमित रत्न- परिच्छद से मण्डित 'इरावान हस्ति' पर हंस-धवल
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