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''सच ही चोर को राजा, और राजा को चोर; और चोर को गुरु बना दिया तुमने। तुम्हारे षड्यंत्रों का अन्त नहीं, अभय !'
'सो तो नई बात नहीं, बापू, बचपन से यही तो करता आया हूँ। ठीकरे को सूरज बना देना, सूरज को ठीकस बना देना। यही भेदाभेद का खेल तो चिर दिन से खेल रहा हूँ, महाराज। आज मेरा अपराध पकड़ लिया न आपने? दण्ड दें मुझे, सम्राट ! ___ 'दण्ड तुम्हें ढूं, कि चोर को दूं, कि अपने को द? समझ काम नहीं करती। यह कैसी पहेली खड़ी कर दी तुमने?'
'तीयंकर महावीर के पाद-प्रान्त में एक चाण्डाल चोर, मगध के सत्तासन पर एक साथ गुरु और राजेश्वर हो कर बैठा है, महाराज । यह दृश्य देख तो रहे हैं न आप? अब जो चाहें दण्ड आप इसे दें। यह आपके सिपुर्द है !' ___ महाराज दिग्मढ़, एकाग्र, अपलक देखते रह गये। आम्रफल के इस चोर की सजा जगत के किसी भी दण्ड-विधान में उन्हें खोजे नहीं मिल रही। 0
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