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'हम इस चोर की सत्यवादिता और विद्या पर, बेशक, मुग्ध हैं। सूझता नहीं, इसके साथ क्या सलूक करें? पर इसका निग्रह करना हमारा राज-धर्म है, वत्स अभयकुमार। कर्तव्य का पालन शीघ्र हो। क्या दण्ड-विधान करते हो?'
'हे देव, पहले इस शक्तिमान विद्याधर से इसकी विद्याएँ प्राप्त कर लें, तब मैं दण्ड-विधान करूंगा।'
तब ममघ-पति श्रेणिकराज ने मातंग-पति को अपने सामने बैठा कर, विद्या सीखना आरम्भ किया। लेकिन स्वयम् सिंहासन पर बैठ कर, गुरु को सामने के नीचे आसन पर बिठाने से उसकी जो अवमानना हुई, उस कारण ऊँचे स्थल पर जल जैसे ठहर नहीं पाता, वैसे ही राजा के हृदय में विद्या ठहर न पाई । तब राजगृह-पति श्रेणिक ने चोर का तिरस्कार करते हुए कहा :
'तुझ में कोई त्रुटि है, विद्या-सिद्ध, इसी कारण तेरी विद्या मेरे हृदय में संक्रमित नहीं हो पा रही।'
ठीक तभी चतुर-चूड़ामणि अभयकुमार ने हस्तक्षेप किया। बोले :
'अपराध क्षमा करें देव, इस समय यह शूद्र मातंग आपका विद्या-गुरु है। और जो गुरु का विनय करता है, उसे ही विद्या स्फुरती है। अन्यथा नहीं स्फुरती। इसी से निवेदन है, तात, कि इस मातंगपति को अपने साम्राजी सत्तासन पर बिठायें, और आप अंजलि जुड़ा कर इसके सामने पृथ्वी पर बैठे। तभी आपको विद्या स्फुरेगी, देव, अन्यथा त्रिकाल में भी नहीं!'
स्व-भाव में निरन्तर चर्या करने से अति सुनम्य-भावी हो गये श्रेणिक ने तत्काल वैसा ही वर्तन किया। उनके मन में बोध हुआ, कि विद्या तो नीच और अपराधी से भी ग्रहण कर लेनी चाहिये। उसके उपरान्त राजा ने मातंम के गुरु-मुख से 'उन्नामिनी' और 'अवनामिनी' नामा दो महाविद्याएं सुनीं। और वे तत्काल दर्पण में प्रतिबिम्ब की तरह राजा के हृदय में बस गईं। राजा विद्या-स्फुरण से बहुत विभोर और नम्रीभत हो आये। उन्हें भूल ही गया, कि कौन तो चोर, और कैसा तो दण्ड-विधान । सहसा ही अभय का बोल सुनाई पड़ा :
'देखें मगधनाथ, आपके सिंहासन पर आपके सामने चोर बैठा है, कि गुरु बैठा है, कि सम्राट बैठा है ? कोई पहचान होती है ?' __'राजा चोर नहीं है, और चोर राजा नहीं है, इसका क्या प्रमाण, वत्स? यह कैसा तो भेद में अभेद, और अभेद में भेद प्रतीयमान हो रहा है, अभय । यह तैने क्या चमत्कार किया, बेटे? मेरी तो बुद्धि ही गुम हो गई !' ___'मैंने चोर को राजा बना दिया, बापू, और राजा को चोर बना दिया। आपने सत्ता-बल से इसकी दो महाविद्याएँ छीन लीं। यह क्या बलात्कार नहीं, चोरी ही नहीं? आप सोचें, देव।'
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