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राज-सभा में सम्राट-पिता के सम्मुख दण्डवत् कर अभय राजा बोला :
'आम्रफल का चोर हाजिर है, महाराज ! इसने बेहिचक अपनी चोरी स्वीकार ली है। स्वयम् ही अपना भेद दे दिया। ऐसा चोर कहाँ मिलेगा?'
राजा अवाक् मातंग को क्षण भर देखते रह गये। उन्हें तो वह घटना ही भूल गयी थी। किसकी वस्तु और कौन चोर? बीती पर्याय को अब श्रेणिक याद नहीं रखते। उन्हे रोष न आ सका। फिर भी कृत्रिम क्रोध से स्वर ऊँचा करके पूछा :
'कौन हो तुम? तुम्हारा यह साहस, कि महादेवी का प्रिय आम्रफल चुराया? गुरुतर अपराध किया तुमने । भारी दण्ड पाओगे।'
'जैसी इच्छा महाराज की। मैं विद्या-सिद्ध मातंगपति । प्रभु का क्या प्रिय करूं?' _ 'चोरी करके साधु बन रहे हो? ऐसा ही प्रिय करने आये ? आश्चर्य, कि उस देव-दुर्लभ फल तक तुम पहुँच ही कैसे सके ?'
'विद्या के बल, महाराज। मुझे अनेक विद्याएं सिद्ध हैं। सूर्य-विज्ञान से मैं किसी भी वस्तु से कोई भी मनचाही वस्तु बना सकता हूँ।'
‘ऐसे समर्थ विद्यापति हो कर तुमने चोरी की? वह आम्रफल विद्या से क्यों न बना लिया? और किस लिये आम्र-फल दरकार हुआ तुम्हें ?'
'मेरी गर्भवती पत्नी को अकाल ही आम्रफल खाने का दोहद पड़ा। मैंने अपनी सारी विद्याएँ चुका दी, पर इस बार वे विफल हुई। आम्रफल मैं बना न सका। मेरी पत्नी ने आविष्ट हो कर दूरान्त में दृष्टि स्थिर कर दी। फिर उँगली का इंगित कर कहा : 'वह देखो, महादेवी चेलना के सर्व-ऋतु वन के आम्र-कुंज में उनका प्रिय आम पक आया है, वही खा कर मेरी साध पुर सकेगी।''-तो चोरी के सिवाय उपाय ही क्या था, देव?' ___ तब महाराज ने उससे पृच्छा कर, उन सारी विद्याओं का वृत्तान्त सुना, जिनके प्रयोग से वह आम्रफल तोड़ ले गया था। सुन कर वे स्तम्भित हो रहे। फिर बोले :
'अभय राजा, यह तो विचक्षण विद्या-सिद्ध है। यह तो किसी दिन मुझे, देवी को, तुम्हें हम सब को चुरा ले जा सकता है। इसकी विद्या का अन्त नहीं। इस ख़तरनाक चोर का कड़ा निग्रह करना होगा, अभय ।'
'सो तो करना ही होगा, ब पू। लेकिन सोचिये तो, कैसी तो अनोखी है इसकी पत्नी। कैसा दैवी उसका दोहद ! और कैसी चमत्कारिक इसकी विद्याएँ । कैसा इसका प्रिया-प्रेम, कैसा भयंकर इसका साहस ! मस्तक दाँव पर लगा कर, प्रिया का दोहद पूरने को महादेवी का प्रिय आम्रफल तोड़ गया !'
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