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रमणी का भोग न किया। अन्त में एक ऊँची तेजस्वी आवाज़ सुनायी पड़ी : 'मैं हूँ विद्या- सिद्ध मातंगपति । मैं कहता हूँ, युवराज, सबसे बड़ा त्याग उन चोरों ने किया, कि जिन्होंने सुवर्ण-रत्न से भरी बाला को बिना लूटे ही छोड़ दिया ।'
सुनते ही तपाक् से अभय राजकुमार आसन छोड़ कर मातंगपति के पास चले आये और बोले :
'विद्या-सिद्ध मातंगपति, मैं तुम्हारी विद्या को सर झुकाता हूँ। मैं तुम्हें हो तो खोज रहा था। तुमने स्वयम् ही अपनी टोह दे दी । मैं तुम्हारा आभारी हूँ । तुम सत्यवादी और विचक्षण विद्यास्वामी हो । चलो, मगधनाथ को तुम्हारी चाह है । वे तुम्हारा सम्मान करना चाहते हैं ।'
मातंगपति चकराया, उसे गन्ध-सी आयी कि अभय ने उसकी चोरी को पकड़ लिया है । वह बोला :
'मगधेश्वर मेरा सम्मान करेंगे, अभय राजा ? ऐसी कोई सेवा तो मैंने उनकी की नहीं । यह सब क्या सुन रहा हूँ ?'
अभय ने इसका उत्तर न दिया । उन्होंने बड़े प्यार से मातंग का हाथ कस कर पकड़ लिया, और चकित भीड़ को चीरते हुए वे प्रेक्षा- मण्डप से बाहर हो गये। रास्ते में मातंग को गलबाँही देते हुए वे बोले :
'तुम्हारी विद्या - सामर्थ्य ने अजेय विद्याधर अभयकुमार को हरा दिया, मातंग । बताओ तो महादेवी का वह दिव्य आम्रफल तुम्हारे हाथ कैसे लग सका ?'
'विद्या के बल से, युवराज ! पहले तो मेरी विद्याएँ भी निष्फल हो गई । तब मैं प्राण को जोखिम में डाल कर, आधी रात उस भयानक अरण्यानी में घुस पड़ा । मेरा पुरुषार्थ देख मेरी विद्याएँ सेवा में आ उपस्थित हुईं, और तत्काल अचूक कार्य-सिद्धि हो गयी ।'
स्थिति को भाँप कर मातंग ने अविकल्प उत्तर दिया । सब कुछ ठीकठीक बता दिया ।
'कौन-सी विद्या ? कैसे ? '
'महावेध-विद्या से मैं आधी रात अरण्यानी को भेदता हुआ आम्रकुंज में पहुँच गया । अदृश्य-दर्शिनी विद्या से वह आम्रफल टोह लिया । अवनामिनी विद्या के ज़ोर से उस ऊँची डाल को झुका कर आम्रफल तोड़ लिया, और.. भी ढेर सारे आम तोड़ लिये ।'
'साधु-साधु, मातंग | ऐसा सत्यवादी और विद्याधर तीन भुवन में खोजे न मिलेगा ।' कह कर अभय ने ठहाका मार कर उसकी पीठ थपथपायी ।
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