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________________ १९१ तो तुझे इस फूल-वाटिका की स्वामिनी बना दूंगा। मैं तुझे छोड़ नहीं सकता। मैंने अपने पुष्पों से तुझे ख़रीद लिया है।' सोनजुही बोली : 'ओ माली, तू मुझे अभी छूना नहीं। मैं अभी कुँवारी हूँ, सो अभी पुरुष के स्पर्श के योग्य नहीं ।' आरामिक बोला : 'जो ऐसा है, तो हे सुन्दरी, मुझे वचन दे कि परण ( ब्याह ) जाने पर तू सर्व प्रथम अपने शरीर को मेरे सम्भोग का पात्र बनायेगी ।' कन्या ने वचन दिया कि वही होगा । सो माली ने उसे छोड़ दिया । 'कन्या अपना कौमार्य अक्षत रख कर घर लौट आयी । अन्यदा एक उत्तम पति के साथ उसका विवाह हो गया । अनन्तर जब वह वासर-गृह में गयी, तो उसने अपने पति से कहा : 'हे आर्यपुत्र, मैंने एक मालाकार से प्रतिज्ञा की है कि परण कर मैं प्रथम संग उसी के साथ करूंगी। मैं वचन से बँधी हूँ, सो मुझे आज्ञा दें कि मैं उसके पास हो आऊँ । एक बार उससे संग करने के बाद तो आजीवन मैं तुम्हारी ही भोग्या दासी हो कर रहूंगी।' सुन कर उसका पति विस्मय से स्तब्ध हो रहा : अहो, यह बाला कैसे शुद्ध हृदय वाली है । कैसी सरला है । सचमुच शुद्ध सोने जैसी है यह सोनाली । पतिप्राणा हो कर भी, पर-पुरुष को दिये वचन को पालने में समर्थ हो सकी है । “पति ने उसे आज्ञा दे दी, और वह वासर-गृह में से बाहर निकल पड़ी। 'रात के मध्य प्रहर में, विचित्र रत्नाभरणों से दमकती, वह रूपसी सत्यवचनी बाला मार्ग में चली जा रही थी। तभी कुछ धनकामी चोरों ने उसे टोका और रोक लिया । सोनाली उस माली की कथा सुना कर उनसे बोली : 'मेरे चोर-भाइयो, जब मैं अपना वचन पूरा कर लौटू, तब तुम खुशी से मेरे रत्न- अलंकार ले लेना ।' माली को दिया ऐसा अपवचन निभाने जाती उस निर्दोष सत्यवती पर वे चोर भी अविश्वास न कर सके । ..अच्छा है, लौटने पर ही इसे लूटेंगे । लेकिन यह तो खुद ही लुटने को तैयार है । इसे लूटने में मज़ा भी क्या ? कोई जादूगरनी है क्या ? और चोरों ने उसे जाने दिया। आगे जाने पर क्षुधा से कृश उदर वाले और मनुष्य रूप मृगों के भोजक एक राक्षस ने उस मृगाक्षी की राह रूँध ली। लड़की ने माली की कथा दुहरा दी और कहा कि 'जब लौटू तो आनन्द से मेरा भक्षण कर लेना ।' राक्षस भी उसकी सत्यनिष्ठा देख विस्मित हो गया । गल आया । भरोसा कर छोड़ दिया, कि यह तो मेरा ही मधुर भोजन है, कहीं जाने वाली नहीं । : 'और सुनो लोगो, कैसी अजीब मायावती है यह कन्या सोनाली । उद्यान में पहुँच कर उसने माली को जगाया और कहा कि 'मैं वही तुम्हारी पुष्पचोर सोनजुही हूँ | मैं नवोढ़ा हो कर, अपनी इस सुहागरात में अपने वचनानुसार पहले तुम्हें समर्पित होने आयी हूँ !" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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