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________________ और उसी पल से अभयकुमार चोर की खोज में दिवा-रात्रि राजगृही और उसके परिसर-वर्ती ग्रामों को छानने लगा। एक बार कहीं राजगृही के एक चतुष्क-चत्वर पर संगीत-नाटक चल रहा था। कौतूहलवश अभय राजा भी उस लोक-जनों की भीड़ में बैठ कर नाटक देखने लगे। योजकों की नज़र पड़ते ही अभय पहचान लिये गये : मगध के जेठे राजपुत्र, मंत्रीश्वर अभयकुमार! लोगों ने नहीं माना, और अभय को रंगमंच के पास ही उच्चासन पर बैठना पड़ा। "इस बीच मध्यान्तर हो गया। उस अवकाश में प्रेक्षकों की भीड़ बेचैन हो रही थी। अभय को तुक्का सूझ गया : वे कथा सुना कर श्रोताओं का मन-रंजन करेंगे । कथा कहने में अभय का जोड़ कहाँ मिलेगा? कहीं से भी शुरू कर देते हैं, और विचित्र रसीली, रहस्यभरी कथा चल पड़ती है । श्रोता सम्मोहित हो रहते हैं। अभय तो सर्व-विद्या पारंगत हैं। कत्थक कथाकार, नट, बहुरूपी, गुप्तचर, गन्धर्व, नाट्य-संगीत-नृत्य के विशारद। मगधेश्वर के गोपन मंत्री। लेकिन राहचारी। रथ जरूरी नहीं। मामूली आदमी की तरह महानगर राजगृही की राज-रथ्याओं पर जन के साथ कन्धा रगड़ कर चलते दिखायी पड़ते हैं। कई बार चीन्हा तक नहीं जा सकता। एकाएक अभय राजा की कौतुकी आवाज सुनाई पड़ी : 'अच्छा नगर-जनो, सुनो, एक कहानी सुनाता हूँ।' विशाल जन-मेदिनी स्तब्ध हो गई। और अभय कहानी सुनाने लगे : 'वसन्तपुर नगर में जीर्ण श्रेष्ठी नामा एक अति निर्धन सेठ रहता था। उसके एक कन्या थी, जो वर के योग्य वयवती हो गई। उत्तम वर पाने की साध ले कर, वह बाला कामदेव की पूजा के लिये किसी उद्यान में से चोरीचोरी फूल तोड़ कर लाने लगी। एक दिन उद्यान-पालक ने निश्चय किया, इस पुष्प-चोर को पकड़ कर ही चैन लूंगा। वह आखेटक की तरह झाड़ियों में छुप कर निगरानी करने लगा। बाला नित्य की तरह, विश्वास पूर्वक बेखटक आ कर फूल तोड़ने लगी। वह अतिशय रूपवती थी। देख कर माली कामातुर हो गया। सो तत्काल प्रकट हो कर काँपते-थरथराते हुए उसने कन्या को पकड़ लिया। पुष्प-चोरी का कोप भूल कर वह घिघियाते हुए कामार्त कण्ठ से प्रणयनिवेदन करने लगा : 'हे सोनजुही बाला, तू कौन ? तेरा नाम क्या ?...' और वह उसका पाणि-पीड़न करने लगा। चकोर कन्या बोली : 'हाँ वही सोनजुही, यही तो मेरा नाम है। तूने कैसे जाना, हे उद्यानपाल ?' और लड़की खिलखिल हँसने लगी। उद्यान-पालक का रक्त आँखों में खेलने लगा। वह बोला : 'हे सोनलवर्णी, मैं तुझ से रति-क्रीड़ा करना चाहता हूँ, सो तू मुझे रति सुख देकर तृप्त कर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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