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________________ १८७ तात। अपना खेल छोड़, गंभीर मुंह बना कर किसी टरी-टाम सिंहासन पर कीलित होना मेरे बस का रोग नहीं, महाराज!' ___ हो तो उसी बाप के बेटे, जो केवल खेल-खेल में ही युद्ध लड़ता रहा, दिग्विजय करता रहा, विलास करता रहा, प्यार करता रहा, राज करता रहा। इतना दुरन्त, इतना चपल कि किसी भी पर्याय पर रुका ही नहीं। बस, खेल, खेल और खेल !' 'अन्तःपुरों को भस्म करवाने का यह नया खेल भी आज ही तो खेला आपने, बाप!, मेरे पिता का भी संसार में जोड़ नहीं!' । 'तो मेरे बेटे अभयराज का भी यहाँ कौन जोड़ है?' और उठ कर राजा ने भावावेश में बेटे को छाती से भींच-भींच लिया। फिर वे तुरन्त चेलना के महल में गये। 'देवता, आज पहली बार बिना कहे, अकेले ही चले गये, प्रभु के पास ? मुझ से ऐसी क्या खता हो गई ?' भर आती-सी चेलना बोली। राजा से बोला न गया। बड़ी देर तक रानी के एक-एक अंग को निरतिशय मृदु भाव से सहलाते चमते रहे। और फिर देवी को अपनी बाहुओं में निःशेष करते हुए बोले : 'खता तो तुम्हारी इतनी बड़ी है, देवी, कि दुनिया में उसकी सज़ा नहीं कोई !' 'मैं तजवीज कर दूं सजा?' 'सुन तो!' 'मेरा त्याग कर दो, और जानो कि तुम कौन हो, मैं कौन हूँ !' 'वही तो करके चला गया था, लेकिन..' 'लेकिन क्या ? लौट आये तो इस परपुरुष-गामिनी के पास ?' चेलना के कण्ठ-स्वर में एक साथ रुलाई और हंसी रणकार उठी। राजा ने उस महीयसी के जुड़े जानुओं को अपनी दोनों बाँहों में कस कर, उन पर माथ ढालते हुए कहा : . - 'आज तक मेरे अत्यन्त निघृण पाप-दोषों तक को तुम सदा क्षमा करती आयीं। एक बार और मुझे माफ़ कर सकोगी?' 'देवता, अब और अपनी आत्मा को अपमानित न करो। तुम्हारी चेलना क्या वही नहीं?' _ और वे दोनों भाव के एक ऐसे सरोवर में जातरूपः क्रीड़ा करने लगे, जहाँ दो आत्माएं एक-दूसरे में अप्रविष्ट रह कर भी, और अप्रविष्ट नहीं रह कर भी, अनायास सदा स्वभाव में क्रीड़ायमान रहती हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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