________________
१८६
'आग तो अभी भड़क ही रही है, बापू । मुझे अभी इसी वक़्त ले जा कर, उसमें झोंक दें। मैं बहुत कृतज्ञ हूँगा!'
'जिन मांओं को तुमने स्वयम् अभी महासतियाँ कहा, उन्हें तुमने जला कर भस्म कर दिया ? मेरा वचन कुछ हो, तुम्हारा भी तो कोई विवेक होगा। मेरी आज्ञा ही तुम्हारी आत्मा है क्या?'
'मेरे साथ चल कर अपनी आँखों देखें, भन्ते तात। देखें कि आपकी आज्ञा और मेरी आत्मा एक हैं या दो हैं।' ___ ना कुछ समय में ही अभय के साथ राजा परेशान, भयभीत, पसीनेपसीने अन्तःपुर के प्रांगण में आ पहुँचे । अन्तःपुरों के महल अक्षुण्ण खड़े थे।
और हस्तिशाला के चौगान में दूर तक फैली जीर्ण झोंपड़पट्टी जल रही थी। देख कर राजा के आनन्द की सीमा न रही।
'अभय, क्या जलाया, किसे जलाया तुमने ?'
'जो जीर्ण और ध्वस्त था, जो जड़ और मृत था, उसे जला दिया। जो भ्रष्ट और व्यभिचरित था, उसे खाक हो जाना पड़ा। ये परित्यक्त पर्ण-फुटीरें दास-दासियों के छपे व्यभिचार का अडडा हो गई थी, महाराज!'
'मेरी आज्ञा का ठीक पालन किया तुमने, बेटे !'
'अठीक मुझ से पूछ हो ही नहीं पाता, बाप। भावी तीर्थंकर श्रेणिकराज के शब्द का नहीं, सारांश का ही अनुसरण करता हूँ मैं। भाव ही तो भव है, तात!' __तो तुम्हारी माताएँ नहीं जली?'
'महलों में जा कर एक बार पता कर आऊँ, देव, जल गईं कि जीवित
___ और अभय दुरन्त क्रीडा-चपल हो कर हँस पड़ा। राजा मानो नया जन्म पा कर, नयी आँखों दुनिया को देखने लगा। यह कैसा भव्य भवान्तर हुआ है उसका, इस एक ही जीवन में। कितने तो भवान्तर हो गये, इस एक ही आयुष्य-विस्तार में ! इससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता है ? .. ___ 'तुम अनुत्तर हो, आयुष्यमान् बेटे राजा। मैं मगध के सिंहासन पर एक वारगी ही धर्म-चक्रवर्ती और कर्म-चक्रवर्ती को देखना चाहता हूँ। महावीर केवल तुम्हारे भीतर बैठ कर मेरी इस ससागरा पृथ्वी पर राज्य कर सकते हैं। इस ख शी में हाँ कहो, तो तुम्हारे राज्याभिषेक की तैयारियां करूं !'
'मैं तो अभिषिक्त ही जन्मा हूँ, तात। मेरा सिंहासन तो आर्यावर्त के चलते राज-मार्गों पर बिछा है। लाख-लाख जन का मनरंजन करता हूँ, उनकी रक्तधारा में अपनी रक्तधारा मिला कर जीता हूँ। मैं तो केवल खेलता हूँ,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org