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श्रेणिक बेतहाशा उत्तेजित था । उसके क्रोध, ग्लानि, क्षोभ और विरक्ति परा सीमा पर थे । वह अपने मनोवेग की गति से ही रथ हाँक रहा था । उसके अस्तित्व का आयतन आज धुलिसात् हो गया था । उसकी धरती छिन गई थी । उसका आकाश विदीर्ण हो गया था ।
उस आवेग में एक तीखे डंक के साथ उसे याद आ रहा था: चेलना के बिना तो वह कभी भगवान् के पास गया नहीं था ! आज वह 'कांचनारवन चैत्य' की राह पर अकेला ही धावित था । निदान यहाँ कोई किसी का नहीं । तो क्या भगवान् के पास अकेले ही जाना होगा ? ---
....' कांचनार चैत्य' के समवसरण में प्रभु का वंदन कर श्रेणिक मनुष्यप्रकोष्ठ में उपविष्ट हुआ । पर वह पारे की तरह चंचल है । बैठा नहीं जा रहा है । और प्रभु नितान्त मौन हैं। एक अखण्ड सन्नाटा छाया है | क्या प्रभु ने उसे और उसकी वेदना को अनदेखा कर दिया ? कि अचानक सुनाई पड़ा :
'तुम चेलना में महावीर देखते रहे, राजन् ! तुम्हें महावीर की अस्मत पर सन्देह हो गया ?'
श्रेणिक को लगा, कि उसके मनोसर्प के विषदन्त को किसी ने पल- मात्र में तोड़ दिया है ।
'स्त्री-पुरुष का भेद ही चेलना की चेतना में नहीं, राजन् । सो उसके लिये पर-पुरुष या पर-नारी का अस्तित्व ही नहीं । किसी भी पर में वह रम सकती ही नहीं । वह उसका स्वभाव नहीं, चरित्र नहीं । स्वकीया और परकीया के भेद से वह ऊपर है । वह एक और अनन्य आत्मा है । एक और अनन्य में ही वह निरन्तर रम्माण है । अन्य उसका कल्प ही नहीं ।'
'फिर वह किसकी चिन्ता में पड़ी थी, आधी रात, भगवन् ? 'उनका ' क्या हुआ होगा ? यह सर्वनाम पुरुष कौन ? ' 'नदी तीर के खड़ों में खड़ा हो गया मुनि तुमको प्रिया के बाहुपाश में भूल गया, राजन् ! महावीर के उस प्रतिरूप को चेलना न भूल सकी ! प्राणि मात्र की वेदना से सम्वेदित चेलना, शीत परीषह झेलते योगी के तप में सहभागिनी हो गयी । चेलना निरी व्यक्ति नहीं । कहीं वह वैश्विकी है, राजन् । '
'मुझ से भारी भूल हो गई, भगवन् !
'और जानो राजन्, प्रीति में जहाँ अधिकार - वासना है, वहाँ संशय, ईर्ष्या, विछोह अनिवार्य है । स्व-भाव अधिकार की पकड़ से बाहर होता है । यह स्वभाव नहीं, कि कोई किसी को बाँध सके । यह स्वभाव नहीं, कि तू चेलना
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