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वह सर्वनाम पुरुष कौन
श्री भगवान इधर कई महीनों से फिर मगध में ही विहार कर रहे हैं। इस समय वे राजगृही से उत्तर एक योजन पर, कांचनार-वन चैत्य में समवसरित हैं।
एक दिन अपराह्न को श्रेणिकराज देवी चेलना के संग, 'अमितवेग' रथ पर चढ़कर अर्हन्त महावीर के वन्दन को गये। प्रभु की आँखों में उस दिन एक रहस्य करवट बदलता दीखा। श्रेणिक को लगा, कि चेलना के आँचल से हर समय चिपटे सम्राट-बालक को वे प्रभु कुतूहल से देखते रह गये हैं। कोई भर्त्सना नहीं है। पर मानो पूछ रहे हैं : 'आखिर कब तक, वत्स? एक पर्याय से जो इतना तन्मय हो गया है, उसका स्वप्न टना ही है। पर तेरा स्वप्न टूट कर भी, महत्तर स्वप्न में उत्तीर्ण हो जायेगा, राजा। क्यों कि तू मझधार में है, लेकिन अपने तट पर भी अवस्थित है। सम्यक्-दर्शी को बन्ध हो सकता ही नहीं। हर पल सम्वर है, फिर निर्जरा है। कर्म रज झड़ रही है। तेरी आसक्ति भी मुक्ति ही हो सकती है, राजन् !'...
सायाह्न में श्रेणिक और चेलना राजगृही को लौट रहे हैं। शिशिर ऋतु की सन्ध्या में शीत गहरा होता जा रहा है। हिमवान में बर्फ पड़ी है। सो मैदान में भी अस्थि-वेधक तीखी ठण्डी हवाएं चल रही हैं। उनमें झड़ते वृक्षों के पत्ते उड़ रहे हैं। सारी वनानी में सूखे पत्तों की जाजिम-सी बिछ गयी है। उसमें से एक खास तरह की सूखी- पत्राली गन्ध उठ रही है। दूर-दूर तक फैले लूंठों के बियाबान । नंगी सफेद शाखाओं में विचित्र आकृतियों का आवि
र्भाव। पत्रहीन दिगम्बर पेड़ों के व्यक्तित्व, कितने सजीव, विलक्षण और सांकेतिक हैं। पतझड़ के इस विनाश में भी किसी नये उत्पाद की सूचना है। सारी वन भूमि में स्तब्ध सफेदी व्याप्त है।
तेज़ हड़कम्पी हवाओं में खड़खड़ाते पेड़ों के पार, गाँव-पुरवे थरथरा रहे हैं। दीन-दरिद्रों के नंगे-अधनंगे बालक अपने द्वारों पर खड़े धूज रहे हैं, दन्तवीणा बजा रहे हैं। और ऊपर घिरी आ रही है शीत-पाले की रात । देवी चेलना का मन उन बालकों के लिये कातर हो आया। क्या अपराध है, इन छौनों का? पूर्वाजित कर्म-बन्ध? पर क्या मनुष्य का कर्तृत्व उससे बड़ा नहीं? नहीं तो फिर मोक्ष का पुरुषार्थ किस लिये ?... और राजा को इन
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