________________
१७८
लेकिन अजात तो सम्राट-पिता के प्रतिद्वंद्वी के रूप में ही बड़ा हुआ है । होश में आने के साथ ही उसने महसूस किया कि उसके ऊपर कोई और कैसे हो सकता है ? पिता भी क्यों ? सम्राट भी क्यों? अजातशत्रु एकछत्र सम्राट से कम होकर नहीं रह सकता। पिता को उसने पिता स्वीकारा ही नहीं। पहले ही दिन से ये तेवर था, कि साम्राजी सिंहासन पर केवल वही बैठ सकता है। श्रेणिक को हट जाना पड़ेगा। ब्राह्मण मंत्री वर्षकार की कूटनीतिक प्रतिभा का सहारा ले कर वह पिता के विरुद्ध अनेक षड्यंत्र रचने लगा। आसमुद्र आर्यावर्त का चक्रवर्ती सम्राट होने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो कर, अजातशत्र ही मगध और वैशाली का वर्षों-व्यापी युद्ध लड़ रहा था। श्रेणिक तो लीला-पुरुष थे। साम्राज्य से अधिक उन्हें सुन्दरी में रस था। वे सम्राट कम, प्रेमिक अधिक थे। उस अजित विक्रम बाहुबली ने युद्ध भी खेल-खेल में ही जीते। पृथ्वी भी प्रिया की तरह ही उसे सहज समर्पित होती गई।
...."अजात की निरंकुश सत्ता-वासना ने ही चम्पा को आक्रान्त कर, उसके अधिपति श्रावक-श्रेष्ठ महाराज दधिवाहन को विष-कन्या के प्रयोग से मरवा दिया। फिर उसने राजगृही के समान्तर ही चम्पा में अपना साम्राजी सिंहासन बिछाया, और पिता की अवहेलना कर अपने ही को मगधेश्वर घोषित कर दिया। आज जिनेश्वरों की चिरकालीन लीला-भूमि चम्पा में, कर पाशवी सत्तामद का लोहा बज रहा है। __ अजात के मन में गहरी खुन्नस है, कि राजगृही के सिंहासन पर महावीर आसीन है ! पिता को तो दाँत-टूटा छूछा सर्प समझ कर उसने, सम्राट की अवहेलना कर दी है। लेकिन मगध के सिंहासन पर महावीर? यह क्या बला है ?
इस बला से मगधेश्वर अजातशत्रु कभी-कभी अपने एकान्त में कांप उठता है।...
"चेलना की आँखें भर आईं। वह प्रार्थना में गुनगुनाई : 'प्रभु, तुम्हारी सदा की प्रियपात्र रही हूँ मैं। फिर भी तुम्हारी चेलना की कोख ऐसी विषम, कि उसमें से आर्यावर्त का विनाश जन्मा है ! उसमें से उलंग सत्ता-मद जन्मा है। मैं अमानुषिक षडयंत्र, युद्ध, हत्या, रक्तपात की जनेत्री? यह तुम्हारी कैसी कृपा है ?'
और 'सर्व-ऋतु वन' के सघन में से उत्तर सुनाई पड़ा : 'महावीर की जनेत्री जिस कोख को होना है, उसे इतिहास के इस सारे रक्त-स्नान और अग्नि-स्नान से तो गुजरना ही होगा!'
"सहसा ही किसी उपस्थिति की पावन मलयज देह-गन्ध में चेलना का प्राण मुक्त होकर तैरने लगा।
U
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org