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. चेलना की छाती दोहरी वेदना से कसकने लगी। एक ओर प्राणप्रिय स्वामी, दूसरी ओर अपनी ही देह का टुकड़ा, अपना मर्भजात पुत्र । वह भारिल और खराश-भरे स्वर में बोली : 'जो मेरे पति के मांस का भूखा हो, वह मेरा पुत्र कैसे हो सकता है ? ऐसा जघन्य मातृत्व मैं कैसे स्वीकारूँ ?' महाराज ने कहा : 'किन परातन अन्धविश्वासों में पड़ी हो? दोहद तो एक माया होती है। विचित्र दोहद होते हैं। शायद इस दोहद की पूर्ति से बालक का कोई जन्मों का पाप कट गया। अपने इस ज्येष्ठ युवराज को अपनी गोद से जिनेन्द्र बना कर उठाओ। यही तुम्हारे योग्य बात है। तुम्हें अपने पति के वीर्य पर सन्देह है ?...'
रानी ने स्वामी का मुंह हथेली से ढाँप दिया, और रो कर उनके चरण पकड़ लिये। बच्चे को उसने बाँहों में झेल कर छाती से चाँप लिया।"पर वह जब भी उसे स्तन-पान कराती, तो लगता कि एक सर्प उसके स्तनों का दूध पीकर पल रहा है। यह कसक उसके मन से कभी निर्मल न हो सकी।
राजा ने अशोक वन में ही प्रथम बार पुत्र का मुख देखा था। इसी से नाम रख दिया गया 'अशोकचन्द्र'। बालक जब वन में छोड़ दिया गया था, तो उसकी अशोक-दल जैसी ही कोमल कनिष्ठिका उँगली को, कुकड़ी ने कुतर लिया था। उँगली काल पा कर रक्त-पीव से भर गयी। उस वेदना से बच्चे का रोना थमता ही नहीं था। श्रेणिक ने स्नेहावेश में आ कर हठात बालक की उँगली को अपने मुंह में लेकर चूस लिया। बच्चा तुरन्त रोता बन्द हो गया। क्रमश: उँगली का घाव तो भर गया, पर उँगली भोतरी ही रह गई। इसी से उसके साथ धलि-क्रीड़ा करने वाले बालक उसे 'कुणक' कह कर पुकारने लगे। मतलब युट्ठी उँगली वाला। इसी से अजातशत्रु बाद को कुणिक अजातशत्रु कहलाया । इसके अनन्तर क्रमशः चेलना की कोख से वारिषेण, हल्ल और विहल्ल जन्मे। बड़े होकर ये चारों बेटे मानो मूर्तिमान प्रभुत्व, मंत्र, उत्साह और विराग की संयुक्त शक्ति हो कर सम्राट का अनुसरण करने लगे।
.. लेकिन आज तो सारी रचना ही बदल गयी है। सम्राट ने साम्राजी सत्ता-सिंहासन त्याग दिया है। मगध की चिर शत्रु वैशाली का तीर्थंकर राजपुत्र, आज उस सिंहासन पर बैठा दिया गया है। तो क्या मगध वैशाली को झुक गया? लेकिन श्रेणिक के मन में अब ऐसे किसी विकल्प और भेद की भाषा नही रह गई है। उसने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, कि जगत-पति महावीर जिस मूर्धा पर बैठे हैं, वहाँ जगत् के सारे सत्तासन अपना अर्थ खो देते हैं। सर्वोपरि सत्ता केवल वही है, जो जीव-जीव और चप्पे-चप्पे पर सदा कायम है।
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