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________________ १७४ पर खुल गया है। इस एक ही जीवन में, कैसा कल्पान्तर घटित हो गया। चेतना के इस नये वातायन पर, सारी चीजों का भाव और आशय ही बदल गया है। तुच्छ से तुच्छ वस्तु, व्यक्ति, घटना में भी एक नया ही निगढ़ भाव और सौरभ प्रकट हो उठा है। इस ‘एक स्तम्भ प्रासाद' और सर्व-ऋतु वन का रहस्य आज खुल गया है। ठीक सामने देख रही हूँ वे दिन, जब यह ‘एकस्तम्भ प्रासाद' बना था। महाराज के मन में बड़ा चाव था, कि वे मुझे जगत् की कोई अनुपम वस्तु भेंट करें। सव से अधिक प्रिय रही उनकी, तो मुझ पर क्या विशेष प्रसाद करें? मेरे मन में एक एकस्तम्भ प्रासाद की कल्पना बचपन से ही थी। मैं महाराज से उसके बारे में प्राय: कहा करती थी। महाराज को सूझा, क्यों न चेलना के आदि स्वप्न का 'एकस्तम्भ प्रासाद' ही इसे बनवा कर दूं। मंत्रीश्वर बेटे अभय राजकुमार बुलाये गये। स्थपति और वास्तुकार उपस्थित हुए। देवी की सर्वांग कल्पना उनके सामने रखी गयी। सम्राट की आज्ञा हुई : 'बेटे अभय, ऐसा महल बने कि उसकी अटारी में चेलना विमान-वासिनी खेचरी की तरह मनमानी निर्बन्ध क्रीड़ा करे।' चतुर-चकोर अभय ने महारानी के मन का महल मानो आँखों आगे देख लिया। उसने तुरन्त ही महल का कोण-प्रतिकोण सही चित्र आँक दिया। महादेवी देख कर चकित हो गयीं। स्थपति ने तदनुसार वास्तुकारों से मानचित्र बनवाये। O अभय ने तत्काल सूत्रधार को आज्ञा दी, कि महल के एक-स्तम्भ के निर्माण योग्य उत्तम काष्ठ मँगावाओ। वद्धिक सुतार वैसे काष्ठ की खोज के लिये अरण्य में गया। अटवी में अनेक वृक्ष देखने के बाद, अचानक एक सर्वलक्षणी वृक्ष उसे दिखायी पड़ा। घेघुर छतनार, आकाश तक ऊँचा, फल-फलों से लदा, गाढ़ी छायावाला, विशाल तने वाला यह वृक्ष असामान्य जान पड़ा। मानो कोई महापुरुष उस अरण्य में जाने कब से अकेला खड़ा है। वद्धिक को लगा, यह वृक्षराज देवत् वाला जान पड़ता है। यह वृक्ष किसी देवता का आवास न हो, ऐसा नहीं हो सकता। सो जानकार वद्धिक ने वृक्ष के अधिष्टायक देवता का तपस्यापूर्वक आराधन किया। ताकि कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो सके। उसने भक्तिभाव से उपवास किया, गन्ध, धूप, माल्य वगैरह वस्तुओं से वृक्ष को अधिवासित किया। तब एक दिन अभय कुमार के सन्मुख उस वृक्ष का वासी व्यन्तर देव प्रकट हुआ। उसने कहा : 'राजकुमार, तू मेरे इस आश्रय-स्थान वृक्ष का छेदन मत करवा। इस वर्द्धिक को रोक दे । मैं महादेवी के स्वप्न का 'एक-स्तम्भ प्रासाद' बना दूंगा। उसके चारों ओर एक 'सर्व-ऋतु वन' की भी रचना कर दूंगा।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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