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आपूति - वचन देव ने रातों-रात पंचशैल के उपान्त में एक-स्तम्भ प्रासाद', और उसकी परिक्रमा में 'सर्वऋतु-वन' खड़ा कर दिया। देख कर श्रेणिकराज चकित रह गये । देवी का माथा किसी अदृश्य महासत्ता को झुक गया। क्या ऐसा भी हो सकता है ? आँखों देखे पर अविश्वास कैसे करें ? यह सृष्टि कितने ही स्तरों पर कितने ही आयामों में व्यक्त हो रही है । विश्व के भीतर विश्व है। सौंदर्य और कला के ऐसे स्रोत जाने कहाँ-कहाँ छिपे हैं। यह 'एक स्तम्भ प्रासाद' : 'यह सर्व ऋतु कानन' ।
.... देवी इस महल में सच ही खेचरी की तरह रहने लगी। आस-पास उड़ने और तैरने को सारा अन्तरिक्ष खुल गया था । पदम सरोवर में लक्ष्मी की तरह चेलना इस महल में विहरने लगी । वह सर्व ऋतुओं के फूलों की माला गंथती । एक माला वीतराग अर्हन्त को अर्पित की जाती, दूसरी माला श्रेणिकराज के गले में शोभती । वह भी सैरन्ध्री की तरह ही महाराज के केशों में फूलों का शृंगार करती । वीतराग प्रभु और पति के लिये समभाव से रानी हर दिन वन में जा कर नये-नये फूल चुनती। इस तरह वह परम रमणी वन के फूलों को धर्म और काम में एक साथ सार्थक करने लगी ।
मूर्तिमान वनदेवी की तरह वह कई एकान्त उपवनों, कुंजों और सरोवरों में अपने प्रियतम के साथ क्रीड़ा करने लगी। वे अब उसके पुरातन पति नहीं रह गये थे । नित नये प्रीतम हो गये थे । एक नामहीन, सीमाहीन सम्बन्ध । या कोई सम्बन्ध नहीं ।
आज ध्यान आ रहा है, इसी 'एकस्तम्भ प्रासाद' में अजातशत्रु गर्भ में आया और जन्मा था । उसके गर्भकाल में चेलना को दोहद उत्पन्न हुआ था, कि वह पति का मांस खाये । ऐसा तो किसी राक्षसी को भी नहीं होता। ऐसी बात वह किसी के सामने कहती भी कैसे ? वह कैसी पिशाच-माया थी ? अपनी वेदना को वह घूंटती गयी । दोहद पूरा न होने से वह दिन के चन्द्रमा की तरह क्षीण और शीर्ण होने लगी थी । इस दुर्दोहद से विरक्त हो कर उसका सारा मन एक उत्कट ग्लानि से भर गया था । महाराज बहुत चिन्ता में पड़ गये थे । एक दिन बड़ी प्रेम-बन्धुर वाणी में उन्होंने रानी से पूछा था : 'किस पीड़ा से इतनी उदास हो गयी हो ? मुझी से छुपाओगी ?' चेलना बहुत गल आई थी । भरभराते कण्ठ से जैसे विष पान करती-सी एक वाक्य में वह बोली थी : 'मुझ पापिन को दोहद पड़ा है, कि अपने स्वामी का मांस खाऊँ !'
'यह तो कोई कठिन दोहद नहीं, देवी, इसे पूरा किया जायेगा । जानती तो हो, मेरा यह शरीर तुम्हारा नैवेद्य रहा सदा । कभी कम न पड़ेगा । मुस्करा दो एक बार !'
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