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________________ सिंहासन वेदी के पाद-प्रान्त में चन्दन काष्ठ के पट्टासन पर ही सम्राट अब राज-सभा में आसीन होते हैं।'' अंजना को आज ध्यान हो आया, कितने निरीह और निःकांक्ष हो कर ये प्रभु के पास से लौटे थे। ना कुछ समय में ही और के और हो गये। पहचानना मुश्किल हो गया। फिर भी अपने वही प्रियतम तो थे। आनन्द की सीमा न रही। ऐसा आह्लाद जिसका अवसान होता ही नहीं। बचपन तो 'इनका' अब भी गया नहीं, लेकिन पार्थिव सत्ता इनके मन हेय हो गयी। काकबीट की तरह उसे दूर फेंक दिया। __• • कैसा तो हो गया है 'इनका' मन । कोई स्पृहा न रही, कोई प्रतिस्पर्धा न रही। मेरे आसपास ही सारे समय इनका जी रमा रहता है। हँसी आती है सोच कर, मेरी सैरन्ध्री हो कर रह गये हैं। स्नानागार में कैसे अछूते हाथों से मुझे नहलाते हैं। कैसे जतन और मार्दव से मेरे अंगों का लुंछन करते हैं। सर्व ऋतु-वन से स्वयम ही नयी-नयी सुगन्धित औषधियाँ खोज ला कर, उनसे मेरा अंगराग करते हैं। मेरे बाहु, वक्ष और लिलार पर कैसी कलात्मक पत्रलेखा रचते हैं। सोचा भी नहीं था, कि ये ऐसे चित्रकार भी हैं। अपने ही हाथों केशों में सुगन्धित केशरंजन मल कर, अपनी उँगलियों की कंघी बना कर मेरे केश सँवारते हैं। मनचीते वसनों में मुझे सजा कर, मेरे चेहरे पर फूलों के कर्णफूल, कुण्डल और मुकुट रच देते हैं। फिर मेरे दोनों सटे जानुओं पर माथा ढाल कर कहते हैं : 'मेरे प्रभु, मेरे भगवान्, मेरे महावीर !' हँसहंस कर मैं लोट-पोट हो जाती हूँ। इन्हें यह क्या हो गया है ? पहले ही क्या कम बच्चे थे, कि अब यह भी बाक़ी रह गया। फिर एकाएक गम्भीर हो जाती हूँ। इनके सर को दोनों हाथों से ढाँप कर उस पर गाल ढाल देती हूँ। कहती हूँ : 'यह क्या हो गया है तुम्हें ? "इतना लो मुझे, कि हम दोनों ही न रह जायें। वर्ना देह की यह माया बहुत भारी पड़ जायेगी।' ये कहते हैं : 'मैं कोई अलग देह या रूप देख ही नहीं पाता, तो क्या करूँ। मैं केवल महावीर देखता हूँ। रूप और शरीर उससे बाहर नहीं, उसी का प्राकट्य है। प्रभु के कैवल्य से बाहर मुझे कुछ दीखता ही नहीं, चेलना। प्रभु सर्वगत हैं, और सर्व प्रभुगत है। ऐसा ही लगता है तो क्या करूँ ? उसी में सब प्रिय और सर्वस्व हो गया है। सारे इन्द्रियभोगों में भी केवल एक ही स्वाद और सम्वेदन अनुभूत होता है : महावीर चेलना "महावीर । इन्द्रियाँ नहीं रही मानो, केवल रस की धारा रह गयी है। रूप और अरूप का भेद ही मन में न रहा। तुम प्रभु की ही द्वाभा हो, चेला। तुमने उन्हें सदेह पाया है, तो मैंने तुम्हारेभीतर उन्हें सदेह पा लिया है।' सुन कर भीतर ही भीतर रस बरसता है, और मैं भीजती ही जाती हूँ। सारी भूमिका ही बदल गयी है। सारा परिदृश्य किसी दूसरे ही क्षितिज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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