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________________ देवी आम्रपाली का द्वार स्वागत-शून्य ही रह गया। वहाँ श्रीभगवान् की आरती नहीं उतारी जा सकी। अगले ही क्षण श्रीभगवान् चल पड़े। काल गतिमान हो गया। इतिहास वृत्तायमान हो गया। शोभा यात्रा श्रीभगवान् का अनुसरण करने लगी। नगर के तमाम मण्डलों, चौराहों, त्रिकों, पण्यों, अन्तरायणों को धन्य करते हुए प्रभु, अविकल्प क्रीड़ा भाव से वैशाली की परिक्रमा करते चले गये। ___ अपराह्न बेला में श्रीभगवान् वैशाली के विश्व-विश्रुत संथागार के सामने से गुजरे। असूर्यपश्या सुन्दरियों की उन्मुक्त देहों से निर्मित द्वार में प्रभु अचानक रुक गये। गान्धारी रोहिणी मामी ने जाने कितने भंगों में बलखाते, नम्रीभूत होते हुए माणिक्य के नीराजन में उजलती जोतों से प्रभु की आरती उतारी। उसकी आँखें आँसुओं में डूब चलीं। श्रीभगवान् के अमिताभ मुखमण्डल को हज़ारों आँखों से देख कर भी वह न देख पायी। देवी रोहिणी ने कम्पित कण्ठ से अनुनय किया : 'वैशाली के सूर्यपुत्र तीर्थंकर महावीर, फिर एक बार वैशाली के संथागार को पावन करें। यहाँ की राजसभा प्रभु की धर्मसभा हो जाये। प्रभु वैशाली के जनगण को यहाँ सम्बोधन करें।' ___सुन कर वैशाली के अष्टकुलक राजन्यों को काठ मार गया। उन्हें लगा कि वैशाली के महानायक की अर्धांगना स्वयम् ही वैशाली के सत्यानाश को न्योता दे रही हैं। अचानक सुनाई पड़ा : 'महावीर के सूरज-युद्ध की साक्षी हो कर भी रोहिणी इतनी छोटी बात कैसे बोल गयी! जानो गान्धारी, दिगम्बर महावीर अब दीवारों में नहीं बोलता, वह दिगन्तों के आरपार बोलता है । तथास्तु देवी ! तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। शीघ्र ही वैशाली मुझे सुनेगी । मैं उसके जन-जन की आत्मा में बोलूंग अचानक अब तक व्याप्त निस्तब्धता टूट गई। असंख्य और अविराम जयकारों की ध्वनियों से वैशाली के सुवर्ण, रजत और ताम्र कलशों के मण्डल चक्राकार घूमते दिखायी पड़ने लगे। और भगवान् नाना वाजिंत्र ध्वनियों से घोषायमान, सुन्दरियों की कमानों से आवेष्टित वैशाली के पूर्व द्वार को पार कर, 'महावन उद्यान' की ओर गतिमान दिखायी पड़े। और तभी हटात् वैशाली के आकाश देव-विमानों की मणि-प्रभाओं से चौंधिया उठे। और देव-दुन्दुभियों तथा शंखनादों से वैशाली के गर्भ दोलायमान होने लगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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