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________________ कर रहे हैं। महाकाल शंकर ने जैसे शक्ति को सर्पमाला की तरह अपने गले में धारण किया है। घर-घर के द्वारों से नर-नारी के प्रवाह निकल कर नदियों की तरह, इस चलायमान महासमुद्र में आ मिले हैं। जहाँ से श्रीभगवान् अपने विशाल श्रमणसंघ के साथ गुज़र जाते हैं, पुरजन और पुरांगनाएँ वहाँ की धूलि में लोटलोट कर अपनी माटी को धन्य कर रहे हैं। और अथाह नीरवता के बीच यह शोभा-यात्रा चुपचाप चल रही है। अनेक चक्रपथों को पार करती हुई यह शोभा-यात्रा, वैशाली के प्रमुख चतुष्क में प्रवेश करती हुई मंथर हो चली है। सप्तभौमिक प्रासाद के सामने आ कर श्रीभगवान् हठात् थम गये ! सुवर्ण-मीना खचित इस वारांगना-महल के प्रत्येक द्वार, वातायन, गवाक्ष और छज्जे पर से अप्सरियों जैसी हजारों मुन्दरियाँ फूलों और रत्नों की राशियाँ बरसाती हुईं अधर में झूल-झूल गईं। प्रमुख द्वार उत्कट प्रतीक्षा की आँखों-सा अपलक खुला है। समस्त पुरजनों की दृष्टि द्वार पर एक टक लगी है। कि अभी-अभी देवी आम्रपाली वहाँ अवतीर्ण होंगी। वे अपनी कर्पूरी बाँहें उठा कर श्रीभगवान् की आरती उतारेंगी। लेकिन उस द्वार का सूनापन ही सर्वोपरि हो कर उजागर है।" श्रीभगवान रुके हुए हैं। तो काल रुक गया है। सारी स्थितियाँ और गतियां स्तम्भित हो कर रह गयी हैं। मानव मात्र मानो मनातीत हो कर केवल देखता रह गया है। सप्तभौमिक प्रासाद के द्वार-पक्ष में अन्तरित कंगन का एक नीलाभ हीरा चमका और ओझल हो गया। सहस्रदीप आरती का नीराजन उठा कर देवी आम्रपाली ने डग भरनी चाही। लेकिन उनका वह पद्मराग चरण हवा में टॅगा रह गया। किंवाड़ की पीठ पर टिकी ठड़ी और छाती पर एक बड़ी सारी आँसू की बूंद ढरकती चली आयी। एक सिसकी फूटी। और आरती उठाई बाँहें शिलीभूत हो रहीं। ..'नहीं, मैं तुम्हारे योग्य न हो सकी। मैं तुम्हारी आरती कौन-सा मुँह ले कर उतारूँ। तुम सारे जगत के भगवान् हो गये, लेकिन मेरे भगवान् न हो सके। वैशाली का सूर्यपुत्र मेरा न हो सका, तो भगवान् को ले कर क्या करूँगी ! भगवान् नहीं मनुष्य चाहिये मुझे। मेरा एकमेव पुरुष । जो मुझे छ सके, मैं जिसे छू सकं । जो मुझे ले सके, मैं जिसे ले सकें। तुम तो आकाश हो कर आये हो, तुम्हें कहाँ से पकडूं। नहीं... नहीं नहीं मैं तुम्हारे सामने नहीं आऊँगी ! For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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