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________________ १६८ ढरकते रहे। कोई कुछ न बोल सका। फिर डूबती बाती ने उझक कर कहा : 'ओ'देखो देवी, देखो। मैं तुम्हारी गोद में समाधिलीन हो रहा हूँ, और तुम उन प्रभु की गोद में उठी हो । मैं चला, मृत्तिला, वे सद्य विकसित कमलोंसी आँखें मुझे खींच रही हैं।...' "समय हठात् एक ओर सरक कर, सोचता खड़ा रह गया। एक निचाट ख़ामोशी में सब सर झुकाये जड़ित हो रहे । शब्द यहाँ प्रश्नायित ठिठका रह गया है। देवी मत्तिला हालाहला की आँखों से महावीर की समवेदना करुणा की जलधारा बन कर झर रही है। देवी का सजल संवेग भरा स्वर उस आहत सन्नाटे में सुनाई पड़ा : 'माटी की अनादि प्यासी पुकार को जिसने आवाज दी थी, वह उसी माटी की अन्तिम तह में लीन हो गया। महावीर को मत्तिका में उतार लाने का ख़तरनाक़ पराक्रम आर्य गोशालक ने किया था। क्या प्रभु भी उन्हें नकार सके ? उन्हें अग्नि-लेश्या दी, कि वे माटी की वासना और विक्षोभ का चरम देखें। आर्य गोशालक ने आदिम कषाय के महाअनल को जगाया, स्वयम् ही उसके होता, हव्य और हवन हो गये। उन्होंने विष-मन्थन में से अमृत निकालने का असम्भव महासाहस किया। माटी और मनुष्य की भूख-प्यासों में ही उन्होंने ब्रह्म का अमृत सींच देने की दुर्दान्त कोशिश की। काया के कर्दम में ही आत्मा का कमल खिलाने के हठीले प्रयास में, उन्होंने तिल-तिल अपने को जला दिया। उनकी विकट वाम चर्या विच्युत हो कर, विपथगामी हो गयी। फिर भी उनकी पुकार की पीड़ा को महावीर नकार न सके। अपनाया था, तो अन्तिम क्षण अपने उत्संग में भी ले लिया। मृत्तिका हालाहला है महावीर का वह उत्संग। वहीं पर मृत्तिका के चरम शयन में, मृत्तिका-पुत्र आर्य मक्खलि गोशालक, अपनी माटिला माँ की गोद में बेबस लुढ़क कर चुप हो गये ! आकाश को मनचाहा बाँध कर पीने और जीने की, मिट्टी की इस कोशिश को, इतिहास भुला न सकेगा। आने वाली सदियों में बार-बार इसके प्रतिसाद गूंजेंगे। और यह पराक्रम फिर-फिर दोहराया जायेगा। आर्य-पुत्र गोशालक को, माटी की मृणालिनी बेटी हालाहला अपनी परमांजलि अर्पित करती है।' हालाहला तो केवल मूक मौन ऊपर को ताक रही थी। उसके विस्फारित नयनों से आँसू चुपचाप ढरक रहे थे। और मानो आकाश-वाणी की तरह ये शब्द उसके ओठों से महज़ स्फुरित हो रहे थे। वह चुप हो गयी, और फिर एक तीखा प्रश्निल सन्नाटा छा गया। तब साहस करके पट्टगणधर दिशाचर कर्णिकार ने पूछा : 'अब देवी का क्या आदेश है ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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