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________________ ..१६७ ___.. नहीं तो मुझ सर्वहारा को तुम क्यों कर समर्पित होती! मेरी भटकन में भी वे प्रभु मेरा हाथ झाले रहे। तुम वही तो हो। तुम्हारे रूप में वे ही मेरी नियति हो रहे। और देखो तो, कैसी दूरंगम थी उनकी प्रीति, कि मुझे जगाने को बहुत पहले दाहक-अग्नि-लेश्या की कुंजी उन्होंने स्वयम् ही मुझे सौंप दी थी, और ठीक समय आने पर अपने ही ऊपर उसका प्रहार करने का अवसर मुझे दिया।कि इस अन्तिम क्षण में, आखिर मैं जाग उठा।"उन अपने ही आत्मदेवता प्रभु पर मैंने कृत्या-प्रहार किया ! हाय, मेरे इस पाप के लिये सारे नरकानल कम पड़ेंगे। ___ 'देवी हालाहले, मैं पाप में नहीं मरूँगा, आप में मरूँगा। मैं असत्य और मृषा में नहीं मरूँगा, मैं अन्तिम सत्य बोल कर मरूँगा । सुनो रे मेरे प्रिय अंगो, चरम सत्य सुनो। मैं अर्हन्त जिनेन्द्र नहीं, चरम तीर्थंकर नहीं। मैं हूँ मंख-पुत्र गोशालक, अवसर्पिणी के एकमेव तीर्थकर भगवान् महावीर का प्रिय शिष्य। उनका धर्म-पुत्र, उनका अग्नि-पुत्र । पर मैं आत्महीनता से ग्रस्त हो कर, प्रतिगामी हो गया, विपथगामी हो गया। मैंने गुरुद्रोह किया। अपने गुरु से पायी विद्या से उन्हीं का घात करना चाहा। मैं प्रभुघात की चेष्टा करके आत्मघात के अतल रौरव में आ पड़ा हूँ। मैं सत्य में मरना चाहता हूँ। मैं उद्घोष करता हूँ, कि तीर्थकर इस पृथ्वी पर अकेले महावीर हैं। उनकी आत्मा के आकाश में मैं छह वर्ष उद्दण्ड विहरा हूँ। उनकी प्रीति, अनुकम्पा और समवेदना का पार नहीं । ... 'आहती हालाहले, मेरे दिशाचर श्रमणो, सुनो, जो मैं कहूँ, वह करना। अपने घोर पाप का प्रायश्चित्त करके ही मेरा यह शरीर चिता पर चढ़ सकेगा। सो मेरा देहान्त हो जाने पर, मेरे मृत शरीर के एक चरण को रस्सी से बाँध कर, मुझे सारे नगर-पथों पर घसीटना। मरे हुए श्वान की तरह मुझे खींचते जाना, और मुझ पर बार-बार यूंकना। श्रावस्ती के प्रत्येक चौहट्टे, चत्वर, त्रिक, चतुष्क, राजमार्ग, गली-गली में मेरे शव को घसीटते हुए आघोषणा करना-कि लोक को दम्भ से ठगने वाला, गुरुघाती, जिनघाती, अर्हत्वाती, महापापाचारी यह मक्खलि गोशालक है। यह चरम तीर्थंकर नहीं, छद्मतीर्थकर है। इसने अर्हन्त-हन्ता हो कर, आत्म-हन्ता होने का चरम अपराध किया है। आत्म-घात से बड़ा कोई पाप नहीं। चरम तीर्थंकर हैं केवल महावीर, यह चरम पापावतार है, चरम लोक-हन्ता है। इसने मिथ्यावादी पापदेशना कर के बरसों तक आर्यावर्त की चेतना को विषाक्त किया है। इसे धिक्कार है. इसे धिक्कार है. इसे बारम्बार धिक्कार है ।। एक गम्भीर सन्नाटे में यह अनुताप वाणी पवित्र हुता की तरह गूंजती रही। सब के हृदय इससे विदीर्ण हो गये । एक महामौन में सब के आँसू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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