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दिया अकेला ? तुम कहाँ हो हालाहले, मेरी आत्मायनी, तुम भी मुझे छोड़ गयीं..? हाय मैं कितना अकेला हूँ, इस घनघोर मरणान्धकार में.. !'
हालाहला ने भूशायी होते गोशालक को अपनी गोद में झेला । वह पुचकारे गये बालक-सा हर्ष से किलक कर, फिर मृद्भाण्ड में सुरा ढाल कर पान करता हुआ प्रलाप करने लगा : 'चरमे पाने, चरमे नट्टे, चरमे गेये, चरजे अंजलिकम्मे ... !' और हाला के जुड़े उरमूल में माथा गड़ाता हुआ इस असह्य दाह से निर्गति खोजने लगा । अपना असली पता और पहचान पाने को मथने लगा।
उसी समय उसका एक प्रिय शिष्य बटुक दिशाचर दौड़ा आया और निवेदन करने लगा : ____ 'महामंख, मुझे एक प्रश्न अति विकल कर रहा है। मैं अर्हत् जिनेन्द्र मंखेश्वर से समाधान पाने आया हूँ। महामंख मेरी विकलता को दूर करें। मैं अविकल होना चाहता हूँ।'
गोशालक अपनी उस महावेदना के अवगाहन-मंथन में बाधा पड़ते देख झल्ला उठा। चीख कर बोला :
'अरे षण्ड मूढ़, अब तक भी कोरा ही रहा, तो अब क्या सीखेगा । मैं इस समय मृत्यु के साथ शिला-कण्टक संगर लड़ रहा हूँ। फिर भी देख, चरम-पान-गान-तान में झूम रहा हूँ। अविकल होना चाहता है ? निरुज होना चाहता है ? तो मूर्ख, इस वीणा से पूछ। इस वक्षायनी वीणा में सारे उत्तर गुंजायमान हैं। देख देख... ...सुन सुन।' और गोशालक फिर आधा-सा उठ कर, सुरा के चषक गटकाता हुआ, पास पड़ी महावीणा झन्नाने लगा
और अष्ट चरमवाद के सूत्रों को उसकी झन्नाहटों के संग ध्वनित करने लगा :
'चरमे पाने : झन्न झनन झन्न ! चरमे गानेः झन्न झनन झन्न । चरम नट्टे : झन्न झनन झन्न। चरमे अंजलि कम्मे : झन्न झनन झन्न। चरमे पुष्प संवर्त्त महामेघे : झन्न झनन झन्न। चरमे श्रेयनाग गन्धहस्ती : झन्न झनन झन्न । चरमे महाशिलाकण्टक-संग्रामे, चरमे रथ-मुशले: झन्न झनन झन्न । चरमे तीर्थकरेः झन्न झनन झन्न । चरमे हालाहले : झन्न झनन झन्न । चरमे मृत्तिका-मृत्युविष-मन्थने : झन्न झनन झन्न ।' ___और वह अपने इस अष्ट चरमाङ्गी मंत्र को अन्तहीन चरमों में प्रलम्ब प्रलापित करता चला गया। और इस चरम पान-गान और वीणा-झंकार की उग्र से उग्र, भयंकर से भयंकर होती ध्वनियों में उसकी चेतना डूबने लगी। उस तमसावृत्त मूर्छा में भी उसे याद हो आयी तीर्थंकर महावीर की भविष्यवाणी, जो उसके जीवन में सदा सच होती आयी थी। आज से सात रात्रि पूर्व, उसने उन पर तेजोलेश्या का प्रक्षेपण किया था। तो क्या आज ही वह
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