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________________ १६४ उच्चार रहा है। शिला-कंटक और रथ - मुशल की बौछारों तले मैं कहता हूँअरें भव्यो, चरम पान सत्य है, चरम गान सत्य है, चरम नृत्य सत्य है, चरम अंजलि - कर्म सत्य है, पुष्प - संवर्त्त महामेघ द्वारा चरम अभिषेक सत्य है, चरम गन्ध- हस्ति जैसा मत्त विहार सत्य है । चरम महाशिला - कण्टक-संग्राम सत्य है, चरम रथ - मुशलों की मार सत्य है, और चरम तीर्थंकर सत्य है । ये अष्ट चरम जानो, जियो और अभय हो जाओ, मुक्त हो जाओ ! 'अरे ये अष्ट चरम मैंने जीवन से सीधे पाये हैं । साक्षात् मृत्तिका रूपा हालाहला के श्यामल माटिल रूप-यौवन और सौन्दर्य- सुरा से छलकते इसके नयनों से मैंने चरम पान का सुख उपलब्ध किया है । और उसी में आत्म-विभोर हो मैंने उसे चरम गान निवेदन किया है, उसी आह्लाद में उसके साथ मैंने चरम पुष्पांजलि अभिषेक किया है । अजातशत्रु का प्रमद-सरोवर, लिच्छवियों की अभिषेक पुष्करिणी - वही है मेरा चरम पुष्प-संवर्त्त महामेघ- स्नान । अजातशत्रु का 'श्रेयनाग' गन्ध-हस्ती, उसके अंगों से फूटती कस्तूरी गन्ध-वही मेरा चरम गन्ध-हस्ती, वही मेरा मत्त गयन्द - विहार | और चरम शिलाकण्टक संग्राम, चरम रथ- मुशल संग्राम । यह तो पहले कभी देखा-सुना नहीं ।" पर उसे मैं काश्यप महावीर की वैशाली पर टूटते देख प्रभु सत्ताकों की वैशाली जल कर ख़ाक होते देख रहा हूँ । नहीं तो मैं चरम तीर्थंकर कैसा ? - देखो रे देखो, मैं ही उबलता इतिहास हूँ । सारे इतिहास के दबे ज़ख़्म और दाह मुझ में फूट रहे हैं। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण और दलन का मैं चरम विक्षोभ और विस्फोट हूँ। मैं ही अतीत, मैं ही वर्तमान, मैं ही भविष्यत् । मैं ही चरम तीर्थंकर"! रहा हूँ । इक्ष्वाकु 'अरे देखो, मेरा यह आत्म-हवन । अब मैं देह में नहीं ठहर सकता, अब में फट कर विश्व होने जा रहा हूँ । देवी हालाहले, निरी मृत्तिका हो कर बिछ जाओ तुम और मैं भी अपनी माटी तुम्हारे पोर-पोर में बसा देने आ रहा हूँ | आदि पुरुष और आदि नारी की इसी तद्रूप मृत्तिका में से, जीव- बीजक - आजीवक धर्म का महावृक्ष संसार में सदा वर्तमान और विवर्द्धमान रहेगा । उसके न्यग्रोध परिमण्डल में मनुष्य की भावी पीढ़ियाँ जीवन में ही मुक्ति का सुख खोजने का ख़तरा उठायेंगी।'''' 'ओह, इस चरमान्तिक दाह में, मेरे घूर्णित और विशृंखल मस्तिष्क में, ये कैसी अदृश्यमान भावी घटनाएँ प्रकट हो रही हैं । महाशिला - कण्टक और रथ-मुशल युद्धों के भीषण अग्निकाण्ड मरता हुआ एक समूचा जगत्, भस्मसात् होता ब्रह्माण्ड देख रहा हूँ। ऐसा सत्यनाशी है मेरा यह आत्म- दाह, मेरा यह आत्म-संक्लेश | क्या मैं भी इसमें से न बच पाऊँगा ? मेरी आत्मा हालाहले, क्या तुम भी मेरी जलन से छिटक गयीं? दूर जा खड़ी हुईं ? मुझे छोड़ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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