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डूबता जा रहा था । पूरी सृष्टि और एति उसमें चक्कर खाते रहते । अवचेतना के अराजक तमस् में भटकती उसको चेतना को अचीरा ने इतिहास के तमाम विक्षोभों से जोड़ दिया था ।
यातना के इस छोर पर उसके अष्ट चरम ही उसका एक मात्र सहारा थे। वह तलछट पीता हुआ, और हालाहला को पिलाता हुआ, झुलसाती लपटों की कराहों में भी चरम पान और गान का उत्सव रचाता रहता । उस देहदाह को वह अपनी प्रेमाकुल वासना बना कर, बड़े विकल राग में रुदन करता हुआ, चरम गान करता । और उन गानों में वह देवी हालाहला को, बहुत जलन भरा प्रयण-निवेदन करता। फिर पास ही टोकनों में भरे पड़े सुगन्धित फूलों से हालाहला का और अपना चरम पुष्पांजलि अभिषेक करता। और फिर चरम गन्ध- हस्ति की तरह मातुल-मत्त हो कर, हालाहला के साथ गयन्द - क्रीड़ा करने लगता । दासी - परिचारिकाएँ लाज का आँचल मुँह पर डाल कर भाग खड़ी होतीं। शिष्य गणधर अपने कुटीरों में दुबके रहते । वे ग्लानि से विरक्त और अवसन्न हो गये थे । इस महायातना के दृश्य को सहने की शक्ति उनमें नहीं थी।
--- ज्यों-ज्यों गोशालक का दाह बढ़ता जाता, वह चीख कर आर्त्तनाद कर उठता था : 'अरे संग्राम है रे संग्राम | महाशिलाकण्टक संग्राम, महाशिला -कंटक संगर छिड़ गया है। रथ- मूशलों की मार है रे, रथ-मूशलों की मार है । पर मैं चरम तीर्थंकर तुम्हें अभय वचन देता हूँ, ये इन्द्र के वज्र, ये महाशिलास्त्र, ये रथ-मुशल तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकते । सुनो रे सुनो, मेरा चरम अष्टांग उपदेश सुनो, वही अस्तित्व की चरम त्रासदियों के निवारण का अन्तिम और अमोघ उपाय है । मैं आजीवक-गुरु हूँ : जीव और जीवन का जो नग्न यथार्थ स्वभाव है, उसको जैसा का तैसा देखना, जानना, जीना और निर्द्वन्द्व भोगना, यही मेरा चरम मुक्ति मार्ग है। जीवन माटी का, और आदर्श आसमान का : प्रभु वर्गों के प्रभुओं के उस पाखण्डी धर्म और धर्मासन का मैंने उच्छेद कर दिया है । (बीच-बीच में वह पीड़ा से कराहता और चीत्कार उठता) देखो रे देखो, मैंने स्वयम् अपने ही कोप नल में हवन होना स्वीकार कर, प्रभुवर्गी महावीर का शलाका- दाह कर दिया है । चरम तीर्थंकर गोशालक की मस्करशलाका ने उसे भीतर ही भीतर दाग दिया है । केवल छह महीनों में वह भस्म हो कर माटी में मिल जायेगा । ...
'और सुनो रे भव्यो, तब चरम तीर्थंकर गोशालक का अष्टांग धर्मचक्र पृथ्वी का भाग्य बदल देगा । उसकी त्रासद नियति ही, उसकी आह्लादक मक्ति बन जायेगी । ““अरे मैं जल रहा हूँ मैं हवन हो रहा हूँ। मेरी चर्बी, अस्थियाँ, स्नायु, मस्तिष्क, मेरा अंग-अंग आग से चटख कर अष्टांग धर्मवाणी
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