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हैं। इसी वाटिका में सघन लता-फूलों से छायी एक कुटीर है। उसकी छाजन उशीर की घास और जवासे की शीतल शाखा-टट्टियों से निर्मित है। उस पर धारा-यन्त्र द्वारा जल-फुहियाँ बरसती रहने से कुटीर में गहरी शीतलता व्याप्त रहती है। अन्दर का आँगन भी विशुद्ध माटी का है। मृत्तिका कुम्हारिन ने यहाँ ठीक एक माटी-कन्या की तरह अपने को माटी के साथ सीधे तदाकार कर के जीने का अपना सुख-स्वप्न रचा है।
इसी कुटीर में अग्नि-लेश्या से दग्ध गोशालक को रक्खा गया है। उसके शरीर का अण-अणु भीषण दाह-ज्वर से सुलग रहा है। उसे क्षण भर को भी चैन नहीं। हालाहला दिन-रात उसे चारों ओर से अपनी शीतल मृत्तिल देहगन्ध से छाये रहती है। उसकी अनेक दासियाँ, आज्ञा पा कर अनेक शीतोपचार प्रस्तुत करती रहती हैं। एक से एक बढ़ कर शीतल मधुर पेयों का ताँता लगा रहता है। नाना तरह के, चन्दन-कपूर और पिंगल माटी के आलेपन चलते रहते हैं।
पास ही पके आमों का टोकना पड़ा रहता है। गोशालक दाह के शोष से टीस कर, उसका शमन करने को मधुर आम्रफल चूसता चला जाता है। बीच-बीच में मृत्तिका-कुम्भ में से पुरातन भूगर्भी मदिरा मृद्भाण्ड में ढाल कर, देवी हालाहला को अर्पित करके पीता रहता है। फिर उन्मत्त हो कर, पीड़ा से आर्तनाद करता हुआ, हालाहला की ओर अंजलियाँ उठाता है। उसके पैरों और गोदी में लोट-लोट जाता है। वसन और शैया उसे असह्य है। सो वह सारे साटिक-पाटिक वसन और झोली-डण्डा फेंक कर, विशुद्ध माटी पर नग्न छटपटाता पड़ा है।
जब भी वह बहुत बेबस होकर हालाहला की गोद में आ गिरता है, तब हाला भी बहुत अवश होकर अनुभव करती कि उसका माथा महावीर की गोद में लुढ़क गया है। प्रभु ने बिदा के क्षण, जो उसे बिन छुए ही अपनी गोद दे दी थी, वह आज कैसी सत्य और प्रत्यक्ष अनुभूत हो रही है। मानो कि प्रभु की शीतल कैवल्य-ज्योति उस मत्तिका के पोर-पोर में पानी की तरह सिंचती चली जा रही है।
उस विक्षिप्त वेदना में तड़पते हुए भी, गोशालक की निगाह औचक ही अचीरा के बहते जलों पर चली जाती। उसकी उद्भ्रान्त चेतना में नदी तदाकार हो जाती। उसके प्रवाह और लहरों में सृष्टि और इतिहास के, अतीत
और भविष्यत् के पटल खुलते रहते। मानो कि गोशालक को अपने ट्टतेबिखरते शरीर के स्नाय-जाल में नदी अपनी पूरी मर्मगाथा के साथ सरसराती महसूस होती। उसके उच्चाटित और घूर्णित मस्तिष्क में इतिहास स्वयम् ही बेतहाशा चक्कर काटता रहता। वह अवचेतन के अँधियारे में गहरे से गहरे
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