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________________ किया। फिर उनके मलयागिरि चन्दन जैसे पावन पीताभ, शीतल-सुगन्धित शरीर की तीन प्रदक्षिणा दे कर, वह कृत्या की लपट पीछे लौटती दिखायी पड़ी। और लौट कर, अगले ही क्षण, वह एक तडित् टंकार के साथ अपने प्रक्षेपक गोशालक के शरीर में प्रवेश कर गयी। गोशालक की सारी देह में सर्वदाहक अनल के शोले उठने लगे । “वह हाहाकार करने लगा। फिर भी वह आक्रन्द करता हुआ गरज उठा : 'महावीर, खेल खत्म हो गया। मेरी यह तपाग्नि तुम्हें छह महीनों के अन्दर तिल-तिल जला कर भस्म कर देगी। तुम छद्मस्थ ही मर जाओगे ! अपने ही जगाये ज्वालागिरि में तुम भस्मीभूत हो गये, काश्यप । प्रभुवर्गों की प्रभुता पृथ्वी पर से आज पुंछ गयी। केवल मैं हूँ मैं हूँ... मैं हूँ... चरम तीर्थकर । आगामी युगों का शास्ता । आह आह आह...!' 'भद्रमुख देवानुप्रिय, तेरी आग चक गयी। वह महावीर तक पहुँच ही न सकी। तू स्वयम ही उसका ग्रास हो गया। महावीर अभी सोलह वर्ष और पथ्वी पर विचरेगा। पर तू अब केवल सात रात्रियों का मेहमान है । महावीर तेरी जलन में तेरे साथ है, वत्स!' हालाहला आर्त्त विलाप करती हुई, प्रभु के श्रीपाद में पछाड़ खा कर गिर पड़ी। उसने पुकार कर निवेदन किया : ___ हे दयानाथ, हे तारनहार, हे दीनबन्धु ! हे दलित-पीड़ित मात्र के उद्धारक ! तुम तो दुष्ट, पापी और अपने प्रहारक के भी तारक हो। हे सर्वत्राता, इन्हें इस पापाग्नि से उबार लो। और मुझे श्रीचरणों की दासी बना लो !' 'देवी हालाहले, आर्य गोशालक को सम्हालो। वे गिर रहे हैं। हो सके तो उनके इस दारुण दाह की वेदना को, अपनी प्रीति का चन्दन-स्पर्श अन्त तक देती रहना। उन्हें छोड़ न देना। अपनी गोद में उन्हें लिया है, तो वहीं उन्हें अन्तिम समाधि भी दे देना।' । 'मुझे प्रभु ने शरण न दी ?' 'तुम महावीर की गोद में हो देवी, और तुम्हारी गोद में है गोशालक!' और ठीक तभी तीव्र दाह की आर्त चीत्कार करके गोशालक हालाहला की गोद में आ गिरा। और प्रभु, अपने रक्त-कमलासन पर ही आविर्मान एक शीतल नील-प्रभा में अन्तर्धान होते दिखायी पड़े। त्रिलोकी में चरम तीर्थंकर महावीर की जयकारें गूंजती सुनायी पड़ी। अचीरवती के तट पर मृत्तिका हालाहला की एक घनी छायादार वाटिका है। पेडों के अन्तराल से अचीरा के चमकते बहते जल दिखाई पड़ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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