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'तुम आग से खेल रहे हो, महावीर । तुम अपनी मौत से खेल रहे हो!'
'महावीर तो बचपन से आज तक यही करता रहा, वत्स । उसी ने तुम्हें यह आग दी है, कि तुम भी इससे जी चाहा खेलो। मैं इस खेल में तुम्हारा साथी हूँ।'
'मैं इस खेल को सदा के लिये ख़त्म कर देने आया हूँ।' 'इसी लिये तो तुम्हें महावीर ने यहाँ बुलाया है।'
'मैं अभी और यहाँ तुम्हें और तुम्हारे इस समवसरण की इन्द्रपुरी को जला कर भस्म कर दूंगा !' ।
'इसी लिये तो आज तुम्हारा आवाहन किया है, देवानुप्रिय। इसी दिन के लिये तो तुम्हें महावीर से एक दिन अग्नि-लेश्या प्राप्त हुई थी।'
_ 'तुम तुम? तुम से प्राप्त हुई थी? सरासर झूठ । वह वैशिकायन तापस की विद्या थी। तुमने वह उससे पाकर, मुझे बतायी। वह तुम्हारी नियति थी। तुम्हारा कर्तृत्व नहीं। मेरी आग, मेरे तप का फल है, वह तुम्हारा दान नहीं। अपने दान-गर्व से बाज आओ, इक्ष्वाकु काश्यप !' ____ 'मेरे पास आग कहाँ, सौम्य ! तुम्हारी अपनी ही आग का स्रोत तुम्हें बताया मैंने, तुम्हारे चाहने पर। तुम्हारी परमाग्नि के चरम को देखना चाहता हूँ। उसे चुकाओ मुझ पर, और जानो कि मैं कौन हूँ। उसके बाद यदि कुछ बच रहे, तो वही महावीर है।' ____'मेरी आग से तुम बच निकलोगे, महावीर ? सावधान, तुम्हारे इस मान को मैं आज अन्तिम रूप से तोड़ देना चाहता हूँ।'
'इसी के लिये तो तुम्हें बुलाया है, आयुष्यमान् !' 'तो ले, अपनी मौत का सामना कर...!'
और एक प्रत्यालीढ़ धनुर्धर की मुद्रा में, गोशालक तीन पग पीछे हटा। फिर मानो शर सन्धान के आवेग में तीन पग आगे छलाँग भरी। उसकी कोपाग्नि पराकाष्ठा पर पहुंच गयी। उसकी नाभि विस्फोटित हुई। और हठात् सहस्रफणी ज्वाला-सी एक कृत्या की शलाका उसने महावीर पर प्रक्षेपित की। प्रभु निस्पन्द, निश्चल, केवल देखते रहे।
सारे समवसरण में हाहाकार मच गया। एक क्षणार्ध को सब दर्शकों की आँखों में प्रलयांधकार छा गया। सब को लगा कि अभी-अभी प्रभु भस्मीभूत हो कर धरा पर आ गिरेंगे। प्रभु की सेवा में नियुक्त इन्द्र को अपना वज्र संचालन करने का भी होश न रहा।
..कि सहसा ही एक आकाशी निस्तब्धता छा गयी। सर्व ने शान्त हो कर खली आँखों देखा : कृत्या की उस शलाका ने झुक कर अर्हन्त महावीर को प्रणाम
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