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________________ १५९ 'विश्व-तत्त्व का यथार्थ साक्षात्कार करने में । इस सब को यथार्थ देखने और जानने में। इस सब का सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान करने में । उससे पर्याय-प्रवाह में भी आत्मा उत्तीर्ण हो कर तैरता चलता है । तो पर्याय की पकड़ ढीली पड़ जाती है। उससे सम्यक् चारित्र्य रूप क्रिया आप ही होती है । स्वरूपस्थ ज्ञाता - द्रष्टा हो जाने पर प्रतिक्रिया रुक जाती है । सो भावी कर्माश्रव रुक जाता है । तब स्वतः सम्वर होता है, आपका अपने में संवरण हो जाता है । तो पूर्वार्जित कर्मबन्ध झड़ जाते हैं, आगामी कर्म-बन्ध अशक्य हो जाता है । यह जानना और इस ज्ञान में जीना ही चरम - परम पुरुषार्थ है। ज्ञान से बड़ी कोई क्रिया नहीं । क्यों कि वह स्वतंत्र चिक्रिया है । वह अकर्त्ता हो कर भी कर्त्ता है, कर्त्ता होकर भी अकर्त्ता है । यह तर्कगम्य नहीं, अनुभवगम्य है, देवानुप्रिय गोशालक ।' ' कर्त्ता भी, अकर्त्ता भी ? वही तुम्हारा चालाक अनेकान्तवादी गोरखधन्धा । चालाक अभिजातों का चालाक दर्शन । बुद्धि की चतुरंग चौसर खेलने का आजीवक को अवकाश नहीं। वह यथार्थ जीवन जीता है, यथार्थ देखता है, यथार्थ कहता है । तुम ज्ञान के घुमाव - फिराव में मनुष्य को भरमाते हो, और अपनी प्रभुता का आसन अक्षुण्ण रखना चाहते हो, अभिजात काश्यप ! मैं तुम्हारे इस मायावी खेल को ख़त्म करने आया हूँ !' प्रभु चुप हो गये । गोशालक आनन-फानन अनाप-शनाप बोलता, बर्राता चला गया। प्रश्न और चुनौतियाँ ललकारता रहा । प्रभु ने कोई उत्तर न दिया । 'तो तुम हार गये, काश्यप ! तुम्हारा मृषावाद नग्न हो कर सामने आ गया। लोक के समक्ष, अपने इन हज़ारों मुण्डे - नंगे चेलों के समक्ष, अपनी पराजय स्वीकार करो। कहो कि — मैं हार गया, तुम जीत गये मंखेश्वर ! कहो कि - चरम तीर्थंकर मैं नहीं, गोशालक है !' भगवान् अनुत्तर, निश्चल, मौन हो रहे । 'तुम चुप रह कर बच नहीं सकते, काश्यप । मैं इस खेल को आज ख़त्म कर देने आया हूँ ।' 'इसी लिये तो तुम्हें बुलाया है, भद्रमुख !' 'तुम्हारा काल तुम्हारे सामने खड़ा है, महावीर । तुम्हारी मृत्यु सम्मुख है | सामना करो ।' 'मैंने स्वयम् उसे बुलाया है, मैं उसके सामने प्रस्तुत हूँ 'मेरे क्रोध को और न उभारो, काश्यप । तुम अब भी भ्रम में हो ।' ' तुम्हारा क्रोध मुझे प्रिय है, भद्रमुख । उसे खुल कर पूरा सामने आने दो। और चुक जाने दो ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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