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बुद्ध भी उसका कोई प्रत्यक्ष प्रामाणिक फल न बता सके। अजात को उत्तर मिला गोशालक से। सुन्दरी हालाहला : यह है मेरे श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल । यह तुम्हारे समवसरण की जादुई देवमाया नहीं। यह ठोस रक्त-मांस की काया है। यह मेरी साक्षात् नियति है !'
- 'तुमने जो होना चाहा, वह हो कर रहे। जो पाना चाहा, पा कर रहे। तुम्हारा श्रामण्य फलित हुआ, देवी हालाहला में। तुम्हारे इस पुरुषार्थ और प्राप्ति को देख, अर्हत् के आनन्द की सीमा नहीं!'
'पुरुषार्थ कैसा, काश्यप। यह मेरी नियति है !'
'लेकिन तुम्हीं ने तो कहा, भद्र, कि जो होना चाहा, हो कर रहा । जो पाना चाहा, पा कर रहा। तो तुमने चाहा न? तुमने अभीप्सा की । तुमने अभिलाषा की। तुम्हारी जनम-जनम की प्यास चरम पर पहुँच कर चीत्कार उठी । कि उसके उत्तर में परमा सुन्दरी हालाहला प्रकट हो आयी। और तुम चरम-पान, चरम-गान, चरम नृत्य, चरम पुष्प-विहार , चरम संग्राम को उपलब्ध हुए । तुमने कुछ चाहा, तो तुमने कुछ किया न? यह क्या पुरुषकार नहीं? यह क्या पुरुषार्थ नहीं ? चाह, अभीप्सा, पुकार, यह क्या क्रिया नहीं? यदि यह तुम्हारी क्रिया नहीं, तो तुम्हें अपनी उपलब्धि का गर्व क्यों ? औरों से बड़ा और प्रभु होने का अहंकार क्यों ? तुम महावीर को पराजित करने आये, क्या यह पुरुषकार नहीं ? क्या यह प्रतिक्रिया नहीं, प्रतिकार नहीं ?'
'नहीं, मैं केवल अपनी नियति को बखान रहा हूँ ?'
'तुम सरासर चाहने और करने की भाषा बोल रहे हो। अपने ही कहे को झुठलाना चाहते हो, सौम्य ?'
'वह मैं नहीं, मेरी नियति बोल रही है। मैं उसका माध्यम मात्र हूँ।'
'तो फिर गर्व किस बात का? फिर कौन किसको पराजित कर सकता है ? फिर चरम तीर्थंकरत्व, और प्रति-तीर्थंकरत्व का दावा किस लिए? फिर आदि और बाद में होने या न होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ?'
'तुम भी तो क्रम-बद्ध पर्याय मानते हो, महावीर? यह पर्याय-शृंखला अनिवार्य है। इसमें से हर पदार्थ और प्राणी को गुजरना ही है। और तुम भी तो काल-लब्धि मानते हो? मानते हो, कि ठीक नियत काल लब्ध होने पर ही जीव को सम्यक्त्व, कैवल्य, और मोक्ष मिल सकता है। तुम्हीं ने बारबार मुझ से आगामी नियति की आगाही की, और वह सच हुआ। प्रारब्ध अनिवार्य है, यह तुमने भी माना। फिर पुरुषकार कहाँ रहा ?'
'अभी और यहाँ सही कर्त्तव्य करने में। सही चर्या करने में ! 'क्रमबद्ध पर्याय में वह पहल और कर्तत्व कैसे सम्भव है ?'
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