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'बात को टालो मत, काश्यप, मैं आज दो टूक फ़ैसला करने आया हूँ । मृषावादी तुम हो या मैं हूँ ?'
'वह निर्णय भी अब प्रति-तीर्थंकर ही कर सकता है। चरम तीर्थंकर भी तो अब तुम्हीं हो, आयुष्यमान् ! महावीर को तुम पराजित कर चुके, अब वह तुम्हें सत्यवादी कहे या मृषावादी कहे, क्या अन्तर पड़ता है । तुम महावीर के कथन से परे जा चुके, वत्स !'
गोशालक सन्न रह गया। जिसने स्वयम् ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली, उसे पराजित कैसे किया जाये ? जिसने स्वयम् ही अपने विरोधी की सत्ता को अपने ऊपर मान लिया, उस सत्ताधीश को कैंस पदच्युत किया जाये ? गोशालक के लिये अपने क्रोध को क़ायम रखना मुश्किल हो गया । मगर अपना क्रोध खो कर वह कैसे जिये, कहाँ रखे अपनी सत्ता ? ओह, भयंकर है यह मित्रमुखी शत्रु ! इस पर कहाँ प्रहार करूँ, यह तो हर पहोंच और पकड़ से बाहर है। मगर मैं इसे पकड़ कर उधेड़े बिना, प्रति-तीर्थंकर कैसे हो सकता हूँ । 'गोशालक को फिर अपने अहंकारी क्रोध के लिये आधार मिल गया । उसने अपना मस्कर - दण्ड पूरे वेग से सन्ना कर महावीर की ओर तानते हुए कहा :
'जानो महावीर, आदि में मस्कर मंख ही थे । मनु से भी पहले, मंख परमपिता थे । वही प्रलय लाये । हमारे वीर्य के विप्लव की सन्तान थे तुम्हारे वैवस्वत मनु, नाभि और ऋषभ । हमीं इस जगत् की अन्तिम नियति रहे सदा । मृत्यु, प्रलय, सत्यानाश । मैं उन्हीं का वंशज हूँ, तुम्हारा काल ! '
'महावीर उस नियति का सामना करने को प्रस्तुत है, आदीश्वर मंखदेव !' 'तो तुमने नियतिवाद को स्वीकारा ? '
'नियति भी, कृति भी, प्रगति भी । नियति है, कि उसको चुनौती देती कृति और प्रगति भी खड़ी है। जो पूर्वज है, उसका भी कोई पूर्वज तो रहा ही होगा । सत्ता में कौन किसी के ऊपर-नीचे हो सकता है ? वह एक स्वयम्भू चक्र है । पूर्वज मंख को अनुज महावीर प्रणाम करता है !
'तुम अपना धर्म चक्र मुझ पर थोप रहे हो, इक्ष्वाक़ ! मगर मैं उसे तोड़ कर आगे जा चुका । मेरी सत्ता आज सर्वोपरि है । मैं जो चाहूँ, वह कर सकता हूँ। जो मैंने होना चाहा, वह मैं हो कर रहा । जो मैंने पाना चाहा, वह मैं पा कर रहा। देख रहे हो, मेरी वामांगिनी परमा सुन्दरी हालाहला को । उदयन और प्रसेनजित् इसके पदांगुष्ठ पर ललाट रगड़ने को तरस कर रह गये। पर वे इसकी एक चितवन तक न पा सके । मगधेश्वर अजातशत्रु श्रामण्य का तुरत फल तुम सब तीर्थंकरों से पूछता फिरा । तुम और
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