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________________ १५६ 'ठीक है, हमीं जायेंगे, देवी हालाहला, उसके उस इन्द्रजाली समवसरण में। उसकी भरी धर्म-सभा में ही उसे पराजित करूँगा। ताकि फिर वह सर न उठा सके। अपने एक ही दष्टिपात से मैं उसके समवसरण की देव-माया को ध्वस्त कर दंगा। और तब आयेगी उसकी स्वयम् की बारी। हूँ...! तैयारी करो, देवी, हम महावीर के समवसरण में जायेंगे।' हालाहला का हृदय किसी अमंगल की आशंका से काँप उठा। पर क्या 'इनको' रोका जा सकता है ? महावीर का शिशुवत् श्रीवदन हाला की आँखों में झलक उठा। वह पीठ फेर आँसू पोंछती हुई, चुपचाप वहाँ से चली गई। ___अगले प्रातःकाल की धर्म-पर्षदा में, किसी अपार्थिव होनहार की स्तब्धता छायी है। क्या कोई आसमानी-सुल्तानी होने वाली है? पर प्रभु तो सदा-वसन्त, वैसे ही मुदित मुस्कराते बिराजे हैं। सहसा ही समवसरण के परिसर में, नक्काड़े तड़क उठे। शंखनाद, घंटाघड़ियाल, तुरही का घोष आसमान फाड़ने लगा। और थोड़ी ही देर में एक क्षपणक वेशी औघड़, मस्कर-दण्ड से हवाओं में वार करता हुआ, सन्नाता हुआ, श्रीमण्डप की ओर आता दिखाई पड़ा। उसके संग श्यामा-सुन्दरी देवी हालाहला, नतशीश धीर गति से चल रही थीं। उनके ठीक पीछे, छह दिशाचर श्रमण गणधर चल रहे थे। और उनके पीछे उमड़ी आ रही थी, महानगर श्रावस्ती की सड़कचारी अन्धी भीड़। एक भेड़ों का आनन-फानन कारवाँ। श्रीमण्डप में प्रभु के सम्मुख उपविष्ट होते ही, भूमि पर दण्ड का आघात कर के गोशालक गरजा : - 'काश्यप महावीर, तुम्हें महामंख गोशालक के पास आने की हिम्मत न पड़ी, तो मैं ही आ गया। अब महाराजे नहीं, मंख पृथ्वी पर राज करेंगे। अब पाखण्डी प्रभु-वर्ग नहीं, दीन-दलित स्वयम् अपने तारनहार तीर्थंकर हो कर, चिरकालीन प्रभु-सत्ता को अपने पैरों तले रौंदते हुए इस धरती पर चलेंगे। और वह पहला प्रति-तीर्थंकर स्वयम् गोशालक है, काश्यप। मुझे पहचानो महावीर । 'सुन रहे हो, इक्ष्वाकु भगवानों के औरस-पुत्र महावीर ?' 'शास्ता तुझ से सहमत हैं, वत्स । तू नग्न सत्य बोल रहा है। नग्न महावीर इसे कैसे नकार सकता है !' 'लेकिन सुनता हूँ, अर्हत् महावीर मुझे मृषावादी, मिथ्यावादी कहते हैं ? और सामने पा कर मुझे सत्यवादी भी कह रहे हैं। आखिर तो पाखण्डी प्रभुवर्गी हो न। दोहरी बात करना तुम्हारे खून की आदत है। आज मैं तुम्हें इकहरा कर देने आया हूँ, इक्ष्वाकु !' ___ 'यही तो प्रति-तीर्थंकर जिनेन्द्र गोशालक के योग्य बात है। महावीर को और भी निग्रंथ करो, वह तुम्हारा कृतज्ञ होगा, सौम्य ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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